गायत्री की २४ शक्ति धाराएँ

ऋतम्भरा

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
ऋतम्भरा च 'यं' देवी विद्यते देवता पुनः ।।
हिरण्यगभोर् बीजं 'ऋं' भरद्वाजो महानृषिः॥
ऋतं यन्त्रं विभूती च सत्या सा सुमुखी तथा ।।
न्यायःच स्थिरप्रज्ञत्वं फलं सन्ति यथाक्रमम्॥

अर्थात - 'यं' अक्षर की देवी- 'ऋतम्भरा', देवता- 'हिरण्यगर्भ', बीज एवं सुमुखी' तथा प्रतिफल- 'स्थिरप्रज्ञता व न्याय' हैं ।।

गायत्री की एक धारा है ऋतम्भरा ।। इसी को प्रज्ञा कहते हैं ।। जिस 'धी' तत्त्व की प्रेरणा के लिए सविता देवता से प्रार्थना की गई है, वह यह ऋतम्भरा प्रज्ञा है ।। इसका स्वरूप समझने और उपलब्ध करने का उपाय बताने के लिए सुविस्तृत ब्रह्म -विज्ञान की संरचना हुई है ।। ब्रह्मविद्या का तत्त्व- दर्शन इसी ऋतम्भरा प्रज्ञा को विकसित करने के लिए है ।। जिससे अधिक पवित्र इस संसार में और कुछ नहीं है, वह भगवान् कृष्ण के शब्दों में 'सद्ज्ञान' ही है ।। इसकी उपलब्धि को 'ज्ञानचक्षु उन्मीलन' ही कहा गया है ।। उन्हीं दिव्य नेत्रों से आत्म दर्शन , ब्रह्म दर्शन एवं तत्त्वदर्शन का लाभ मिलता है ।। जिस आत्म साक्षात्कार, ब्रह्म साक्षात्कार के लिए तत्त्वदर्शी, प्रयत्नशील रहते हैं, उसकी उपलब्धि ऋतम्भरा प्रज्ञा के अनुग्रह से ही संभव होती है ।।

बुद्धि चातुर्य से सम्पत्ति संग्रह एवं लोक आकर्षण की उपलब्धियाँ सम्भव हो सकती हैं, किन्तु आत्मिक उपलब्धियों के लिए सद्भावना, सहृदयता, सज्जनता की भाव संवेदना चाहिए ।। इन्हीं का विवेकसंगत दूरदर्शितापूर्ण समन्वय जिस केन्द्र पर होता है, उसे ऋतम्भरा प्रज्ञा कहते हैं ।। यह जिसे जितनी मात्रा में उपलब्ध होती है, वह उसी अनुपात में सन्त, सज्जन, ऋषि, महर्षि, राजर्षि, देवर्षि बनता चला जाता है ।। लौकिक बुद्धि से सांसारिक सम्पदाएँ मिलती हैं ।। आत्मिक विभूतियों का उत्पादन अभिवर्धन तत्त्व दृष्टि से होता है ।। इसी तत्त्व दृष्टि को ऋतम्भरा प्रज्ञा कहते हैं ।। जीवन को गौरवान्वित करने तथा पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचाने में सारी भूमिका ऋतम्भरा को ही सम्पादित करनी पड़ती है ।।

ईश्वर का सबसे बड़ा वरदान ऋतम्भरा प्रज्ञा है ।। उसका उदय होते ही माया के समस्त बन्धन कट जाते हैं ।। अज्ञानान्धकार को मिटाने में जिस अरुणोदय की कामना की जाती है, वह सविता का आलोक ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में प्रभात कालीन ऊषा बन कर ही अपने अस्तित्व का परिचय देता है ।। प्रज्ञा का अवतरण होने पर मनुष्य की आकांक्षाएँ, विचार धाराएँ एवं गतिविधियाँ, माया बद्ध जीवधारियों से सर्वथा भिन्न हो जाती हैं, वे वासना तृष्णा की कीचड़ में सड़ते नहीं रहते, वरन् अपनी जीवन नीति को उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व के साथ जोड़ते हैं ।।

लोग क्या कहते हैं, क्या करते हैं, इससे वे तनिक भी प्रभावित नहीं होते ।। लोभ- मोह की मदिरा पीकर उन्मत्त हुए पथभ्रष्टों के प्रति उन्हें करुणा बनी रहती है और उनके उद्धार की बात भी सोचते हैं, पर यह स्वीकार नहीं करते कि वे लोग परामर्श को अंगीकार करें ही ।। ऋतम्भरा प्रज्ञा के सहारे ही वे ऐसे साहसिक निर्णय ले पाते हैं जो मोहग्रस्त भव- बन्धनों से जकड़े हुए जन समाज की अपेक्षा सर्वथा भिन्न होते हैं ।। ईमान और सच्चाई के अतिरिक्त और किसी का परामर्श उन्हें प्रभावित नहीं करता ।। प्रज्ञा का इतना सुदृढ़ कवच पहनने वाले ही जीवन संग्राम में विजय प्राप्त करते हैं और इस धरती के देवता कहलाते हैं ।।

दृष्टिकोण में उत्कृष्टता भर जाने पर पदार्थों की उपयोगिता और प्राणियों की सदाशयता का दर्शन होने लगता है ।। तदनुरूप अपना व्यवहार बदलना और निष्कर्ष निकलना आरम्भ हो जाता है ।। चिन्तन की इसी प्रक्रिया का नाम स्वर्ग है ।। वासना, तृष्णा और अहंता के बन्धन ही मनुष्य को विक्षुब्ध बनाये रहते हैं ।। जब इन्हें हटा कर निष्ठा, प्रज्ञा और श्रद्धा की मनोभूमि बनती है तो तुष्टि, तृप्ति और शान्ति की कमी नहीं रहती ।। प्रलोभनों से छुटकारा और आदर्शों का परिपालन- यही जीवन मुक्ति है ।। आत्म- साक्षात्कार, ब्रह्म साक्षात्कार की सच्चिदानन्द स्थिति इसी स्तर पर पहुँचने वाले को मिलता हैं ।।

गायत्री उपासना से ऋतम्भरा प्रज्ञा प्राप्त होती है, अथवा ऋतम्भरा प्रज्ञा का अनुशीलन करने वाले गायत्री का साक्षात्कार करते हैं? इस विवाद में न पड़कर हमें इतना ही समझना चाहिए कि दोनों अन्योऽन्याश्रित हैं ।। जहाँ एक होगी वहाँ दूसरी का रहना भी आवश्यक है ।। गायत्री का सच्चा अनुग्रह जिस पर उतरता है, उसमें ऋतम्भरा प्रज्ञा का- ब्रह्म तेजस् का आलोक प्रत्यक्ष जगमगाने लगता है ।। सामान्य लोगों की तुलना में वह उत्कृष्टता की दृष्टि से ऊँचा उठा हुआ और आगे बढ़ा हुआ दृष्टिगोचर होता है ।।
संक्षेप में ऋतम्भरा के स्वरूप, आसन आदि का तात्त्विक विवेचन इस प्रकार है-

ऋतम्भरा के एक मुख ,, चार हाथ हैं ।। उनमें दीपक- ऋतम्भरा प्रज्ञा- विवेक ज्योति का, श्रीफल- श्रेष्ठ प्रतिफल- सत्परिणाम का, माला- सतत स्मरण की, आशीर्वाद मुद्रा उदार अनुदान की प्रतीक हैं ।। आसन सहस्रदल कमल- सहस्रार चक्र में समाहित ऋत शक्ति का द्योतक है ।।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118