गायत्री महाविद्या का तत्वदर्शन

वर्चस् की साधना आत्मबल उभारने के लिये

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वर्चस् की साधना आत्मबल उभारने के लिये-

उपनिषद का ऋषि कहता है- "नयमात्मा बल हीने लभ्यो" यह आत्म दुर्बलों को मिल ही नहीं सकता।
विभिन्न बलों की साधना विभिन्न क्षेत्रों में अपने- अपने ढंग से की जाती है। साधना बल भी एक बल है। प्रगति और सुख- सुविधा के लिए साधनों का संचय भी प्रकारान्तर से शक्ति साधना का ही एक रूप है। पर अभाव एक ही बात का रह जाता है कि यह सब उथली ऊपरी सतह पर ही किया जाता है। उसमें क्रिया और बुद्धि का ही समन्वय रहता है। यदि इसमें उच्चस्तरीय भाव सम्वेदनाओं का भी समावेश रहा होता तो निश्चित रूप से यही प्रयत्न आकाश में टँगे रवि- शशि और तारक मण्डल की तरह चमचमाते- जगमगाते दृष्टिगोचर होते।

          ऊपरी सतह पर जो हलचलें होती हैं वे अपने प्रयास साधनों के अनुरूप स्वल्प परिणाम ही उत्पन्न करती हैं। मोटर का इन्जन खराब हो। पैट्रोल की टंकी खाली हो तो भी उसे धक्के लगाते हुए कुछ दूर ले जाया जाता जा सकता है। सवारियाँ उसके भीतर छाया का लाभ ले सकती है, पर उस गाडी़ की द्रुतगति का लाभ तो सही इन्जन और आवश्यक पैट्रोल होने पर ही सम्भव हो सकता है। शरीर और मन के समन्वित प्रयत्नों से निर्वाह प्रक्रिया तो पूरी होती रह सकती है, पर किसी दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रगति करने के लिए उसमें गहन अन्तराल का, संकल्प शक्ति का, आत्म- विश्वास का, अटूट तत्परता का समावेश होना चाहिए। यह सभी उच्चस्तरीय तत्त्व शरीर और मन के क्षेत्र से ऊपर हैं, वे अन्तःकरण की गहरी परतों में ही भरे हैं। और वहीं से उभर कर ऊपर आते हैं। यदि वह मर्म स्थल प्रसुप्त स्थिति में पडा़ हो तो फिर हर पराक्रम बहुत ही उथले स्तर का रहेगा और उस प्रयास का परिणाम भी अति स्वल्प निकलेगा।

          पैनी तलवार भी युद्ध मैदान में लड़ा जाता है और सिर भी उसी से कटते हैं। इस प्रत्यक्ष तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता। पर इतना ही मान बैठना नासमझी होगी। तलवार चलाने के लिए कलाई की मजबूती और मस्तिष्क की अभ्यस्त क्रिया- कुशलता आवश्यक है। इसके बिना बढि़या तलवार भी कुछ काम न कर सकेंगी और न प्रहार कर सकेंगी। इतना ही नहीं यदि चलाने की कुशलता और सूझ- बूझ अभ्यास में नहीं उतारी गई है तो भी वह शस्त्र निरर्थक ही सिद्ध होगा।

           ऊपर की पंक्तियों में तलवार रूप साधन और हाथ रूप मस्तिष्क की मजबूती से युद्ध में सफलता मिलने की बात कही गई है, पर थोडा़ विचार करने पर एक नया तथ्य और भी उभर कर आता है कि सैनिकोचित शौर्य, साहस का अभाव रहा, अन्तःकरण में भीरुता छाई रही, उत्कट देश- भक्ति का स्थान उदासीनता ने ले लिया तो अन्तराल की स्थिति खोखली रह जायगी। ऐसी दशा में वह दुर्बलता अपने आप में संकट बन जायगी और उसके रहते तलवार की अच्छाई और हाथ की मजबूती भी कारगर सिद्ध न होगी। भीतर से हड़बडा़या हुआ डरता, काँपता सैनिक युद्ध में विजयी होकर नहीं लौट सकता।

          शक्ति का स्त्रोत अन्तराल है। समर्थता और दुर्बलता का वास्तविक मूल्याकंन इसी स्तर की स्थिति को देखकर किया जा सकता है। बलवान वही है जिसकी अन्तरात्मा बलिष्ठ है। इतिहास साक्षी है कि आश्चर्यचकित कर देने वाली अति महत्त्वपूर्ण सफलताएँ न तो साधनों के सहारे मिली हैं और न बुद्धि कौशल का ही उसमें बहुत बडा़ हाथ रहा है। चमत्कार संकल्प- शक्ति ही उत्पन्न करती है और यह संकल्प बल उच्चस्तरीय आदर्शों का समन्वय हुए बिना उत्पन्न हो ही नहीं सकता। ललक- लिप्सा के वशीभूत होकर भी लोग उन्नति की दौड़- धूप करते हैं, पर वह न तो स्थिर होती है और न गहरी। अधिक लाभ, बहुत जल्दी मिलने का उत्साह जब तक रहता है तभी तक वे प्रयत्न चलते हैं जैसे ही सफलता श्रम- साध्य, समय- साध्य एवं धूमिल दिखाई दी वैसे ही हाथ- पैर फूल जाते हैं। उत्साह ठण्डा होने पर काम को छोड़ बैठने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं रह जाता। हर अवरोध से जूझते हुए, बिना थके झुके प्रयत्नरत रहने की स्थिति अन्तराल की आस्थावान् संकल्प- शक्ति के सहारे ही सम्भव होती है। महत्त्वपूर्ण कार्यों की सफलता पूर्णतया उसी आन्तरिक प्रखरता के, आत्म- बल के, ऊपर निर्भर रहती है। शक्ति का उद्गम स्त्रोत अन्तःकरण से ही उभरता है। शरीर और मस्तिष्क में तो उसका प्रवाह भर चलता दीखता है।
          
गाँधी जी का शरीर बहुत दुर्बल था। वे मात्र १६ पौंड के थे। शारीरिक दृष्टि से उनकी सामर्थ्य उपहासास्पद ही गिनी जायगी। उन्हें तो कोई किशोर भी दौड़ने या लड़ने की चुनौती दे सकता था, पर उनकी शक्ति का मूल्याकंन जिनने किया है वे जानते हैं कि पर्वत से ऊँचा और समुद्र से विस्तृत उनका व्यक्तित्व था। उनकी प्रचण्ड सामर्थ्य की टक्कर अँग्रेज सरकार से हुई और इस कुश्ती में वे ही जीते। इतनी बडी़ कुश्ती तो बडे़ से बडा़ पहलवान भी नहीं लड़ सकता था। साधन बल से भी यह युद्ध जीतना कठिन था। आत्म- बल ने भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में जो भूमिका निबाही उसे देखते हुए स्पष्ट है कि संसार की सबसे बडी़ सामर्थ्य यही है। आत्म- बल से बढ़कर और कोई बल इस संसार में है ही नहीं।

          व्यक्तिगत जीवन की गरिमा उस आत्म- बल पर आधारित है जिसमें आदर्श और संकल्प का समान रूप से समन्वय होता है। सदुद्देश्य में भाव- भरी श्रद्धा और कर्त्तव्य पालन में प्रचण्ड निष्ठा का समन्वय होने से इस आत्म- शक्ति का उदय होता है। उसी के सहारे लोभ और भय के अवरोधों को हटाते हुए उच्चस्तरीय आदर्शों को पूरा कर सकना सम्भव होता है। समाज सेवा की परमार्थ परायणता से ही कोई व्यक्ति यशस्वी होता है। लोक- सम्मान और जन सहयोग पाकर लोग ऊँचे उठते और सफल बनते हैं। यशस्वी और जन- नायक बनने की आकांक्षा भी बिना आत्म- बल के पूर्ण नहीं हो सकती। परमार्थ प्रवृत्ति गहरी और उच्चस्तरीय होनी चाहिए। तभी उसका चिरस्थायी सत्परिणाम निकलेगा। हथकण्डे बाजी से कुछ समय के लिए सस्ती वाहवाही की लुटखसोट हो सकती है, पर उतने भर से कोई काम बन नहीं सकता। धूर्तता के बल पर समेटी गई प्रशंसा में स्थायित्व कहाँ होता है? काठ की हाँडी में खिचडी़ में खिचडी़ कहाँ पक पाती है?


अपने अनुकरणीय आदर्श छोड़ जाने वाले कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य कर गुजरने वाले व्यक्तित्वों का विश्लेषण किया जाय तो उनमें सभी में संकल्प- बल की विशेषता पाई जायगी। कहना न होगा कि ओछे, दुष्ट, स्वार्थी मन भूमि में वह संकल्प- शक्ति विकसित हो ही नहीं सकती जिसकी गर्मी से पर्वत गलने और पानी की तरह बहने लगते हैं।

           आतंकवादी दुष्ट, दुरात्मा भी बलिष्ठता का ड़का बजाते और ढिंढोरा पीटते देखे गये हैं। उद्दण्डता से डर कर कई दुर्बल प्रकृति के व्यक्ति डरते, घबराते और उनका लोहा मानते भी देखे गये हैं। इस दुष्ट और दुर्बल संयोग से उत्पन्न अवांछनीय प्रतिक्रिया को प्रायः उद्दण्डता की शक्ति के रूप में माना समझा जाने समझा जाने लगा है। वह दुःखद और अवास्तविक मान्यता है। अनैतिक आतंक में यदि कुछ सामर्थ्य है भी तो वह यत्किंचित विनाश कर सकने भर की है। सृजन का कोई तत्व उसमें रत्ती भर भी नहीं है। उपलब्धियाँ तो सृजन की होती हैं। लाभ तो उन्हीं का मिलता है। व्यक्तित्व और कर्तृत्व तो उन्हीं के सहारे निखरता है। ध्वंस को शस्त्र बनाकर चलने वाले वैसा कुछ पा नहीं सकते। वे दूसरों को हानि पहुँचा सकते हैं। प्रथम आक्रमण करने वाला सदा लाभ में रहता है। पर वह लाभ न स्थायी और न फलदायक। अन्ततः वह आक्रमणकारी के लिए ही अभिशाप सिद्ध होता है। माचिस की तीली का अस्तित्व नगण्य है, पर अग्निकाण्ड तो वही रच सकती है। लोहे की एक छोटी सी कील भी किसी का प्राण हरण कर सकती है। इस ध्वंस सामर्थ्य से आक्रमणकारी का कोई लाभ नहीं होता। तीली अग्निकाण्ड तो करती है, पर उसी आग में जलकर उसे स्वयं भी समाप्त होना पड़ता है। पागल कुत्ता कइयों को काट सकता है, पर खैर उसकी भी नहीं है। प्रकृति दण्ड अर्थात् दुष्टता के विरुद्ध उभरे आक्रोश से उसे मृत्यु मुख में ही जाना पड़ता है जब कि काटे हुए लोग दवादारू के सहारे अच्छे भी हो जाते हैं।

           यहाँ चर्चा वास्तविक और अवास्तविक बलिष्ठता की हो रही थी। आतंक, अनीति और धूर्तता का प्रश्रय लेकर भी यत्किंचित बलिष्ठता उपार्जित करते हुए लोग देखे गये हैं। इसमें कइयों का मन इस सस्ती उपलब्धि के लिए मचलता है और वे दुष्टता के सहारे बलिष्ठ बनने का प्रयत्न करते हैं। यहाँ यह हजार बार समझ लिया जाना चाहिए कि यह अवलम्बन न तो सरल होता है और न सफल। दुष्टता अपनाकर सम्मान भी गंवाया जाता है और सहयोग भी। घृणा, तिरस्कार का ताना- बाना अपने चारों ओर बुन डालने वाला व्यक्ति मित्र विहीन बनता चला जायगा। घिनौने व्यक्ति के दो ही साथी होते हैं एक पतन दूसरा विनाश। आतंकवादी बलिष्ठता के दुष्परिणामों को जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना ही उत्तम है।

कुटिलता के बल पर नहीं, प्रगति सदाशयता और सज्जनता की नीति अपनाने से ही सम्भव होती है। सृजन की सामर्थ्य ही वास्तव शक्ति है। उसी को विकसित करके मनुष्य गुण, कर्म स्वभाव की उत्कृष्टता प्राप्त करता है। व्यक्तित्व को निखारने और सुसंस्कृत बनाने के प्रयत्न ही किसी मनुष्य में समर्थ सशक्ता उत्पन्न करते हैं। उसी से गरिमा बढ़ती है। सृजनात्मक प्रयोजनों में यही क्षमता काम आती है। लोकहित उसी से सम्भव होता है। सेवा साधना उसी के सहारे बन पड़ती है। लोक- सम्मान से लेकर आत्म- सन्तोष तक के अनेकानेक वरदान उसी के सहारे उपलब्ध होते हैं भविष्य निर्माण का एकमात्र उपाय आत्म- निर्माण ही माना गया है। संचित कुसंस्कारों से जूझना उन्हें उखाड़ फेंकना प्रबल पुरुषार्थ कहा जाता है। दूसरों से लड़ने की अपेक्षा अपने से लड़ना आन्तरिक शत्रुओं को परास्त करना अधिक कठिन है। आत्म- शोधन के मोर्चे पर लड़ना और विजय प्राप्त करना ब्राह्म जगत की किसी भी सफलता की तुलना नें अधिक श्रेयष्कर है। यह लडा़ई प्रचण्ड आत्म- बल के सहारे ही लडी़ जा सकती है। ब्रह्मवर्चस् को उपार्जित करके मनुष्य सामान्य से असामान्य और नर से नारायण बनने का पथ- प्रशस्त करता है।

           बाह्य जीवन में श्रेय, सहयोग पाने के लिए बीज रूप से स्वयं गलना पड़ता है। परमार्थ प्रयोजनों में सच्चे मन से लग सकना उसी के लिए सम्भव हो सकता है जो अपनी तृष्णाओं पर अकुश लगा सके। महत्वाकांक्षाओं का दमन करने वाला अपनी क्षमताओं तथा आदर्शों की साधना में लगा सकता है। जो स्वयं ही आकांक्षाओं की आग में जल रहा है उसे तो दूसरों के ईंधन की तरह उपलब्ध करनें का ही मन रहेगा। जो अपने को बादल की तरह निचोड़ सके, वही किसी के कुम्हलाये पौधे को नव- जीवन दे सकने में समर्थ हो सकता है। स्वार्थों पर अकुश लगा सकना इस अहंलिप्सा के युग में कितना कठिन है यह किसी से छिपा नहीं। नदी प्रवाह से ठीक उलटी दिशा में केवल साहसी मछली ही छरछराती हुई चल सकती है। हाथी जैसे विशालकाय प्राणी तक उसमें बहते चले जाते हैं। मछली जैसी प्रवाह के विपरीत चलने की साहसकिता निस्सन्देह असाधारण ही कही जा सकती है। ऐसा अद्भुत शौर्य, साहस प्रदर्शित कर सकने वाले एतिहासिक महामानव कहलाते और युग समस्याओं को सुलझाते हैं। यह गौरव प्राप्त करने की मनःस्थिति और परिस्थिति बना सकना केवक उन्हीं के लिए सम्भव होता है जो आत्म- बल का महत्त्व समझते और उसे उपलब्ध करने का प्रयत्न करते हैं। आदर्शवादिता के मार्ग पर चलना, लोक मान्यता के अनुसार घाटे का काम है। इसलिए तथाकथित स्वजन सम्बन्धी एक स्वर से उधर कदम बढा़ने से चित्रविचित्र तर्क गढ़कर रोकते हैं। शत्रुओं का प्रतिरोध सरल है, पर स्वजनों के आग्रह को अनसुना करने वाली एकाग्र आदर्श- निष्ठा का परिचय दे सकना अति दुस्तर है। इस अग्नि परीक्षा में सफल हो सकना आत्म- बल के बिना सम्भव नहीं हो सकता। आन्तरिक प्रलोभनों और परिजनों के आग्रहों की उपेक्षा कर सकना जिस प्रचण्ड आदर्शवादिता के सहारे सम्भव होता है वह आत्म- बल का ही दूसरा रूप है।
           व्यक्तित्व के परिष्कार और देवताओं जैसा लोक- व्यवहार ही मानव जीवन की सफलता का एकमात्र आधार है। वह उत्कृष्टता के प्रति असीम श्रद्धा रख सकने पर ही सम्भव होता है। आये दिन के आँधी- तूफानों से ज्वार- भाटों से आत्मवादी दृष्टिकोण के दीपक को बुझने न देना भँवर से नाव खेकर ले जाने की तरह कठिन है। यह भव- बन्धनों को लौह श्रृंखला को अपने ही नाखूनों से काटने जैसी कठिन प्रक्रिया है। इसे अटूट धैर्य और असीम साहस के सहारे ही सम्पन्न किया जा सकता है। मानवी- गरिमा को प्राप्त कर सकने की ललक तो बहुतों की रहती है, पर उसे पा सकने में आत्म- बल सम्पन्न शूर- वीन ही सफल होते हैं।

           भौतिक जीवन में चिरस्थायी सफलताएँ प्राप्त करने के लिर आत्म- बल की, संकल्प बल की आवश्यकता पड़ती है। विद्यार्थियों में से अनेकों को अरुचि और अवारागर्दी की आदत मूर्खता और पिछडे़पन की गर्त में फेंक देती है। साधन रहते हुए भी कितने ही लड़के पढ़ नहीं पाते और बेकार के बहाने बनाकर शिक्षा लाभ से वंचित रह जाते हैं। इस दुर्भाग्य से जूझ सकना मनस्वी और दूरदर्शी छात्रों के लिए ही सम्भव होता है। व्यायामशाला में क्षणिक उत्साह लेकर कितने ही प्रवेश करते हैं किन्तु उस कठिन मार्ग से खिन्न होकर जल्दी ही छोड़ भी बैठते हैं। नित नये कार्य आरम्भ करने वाले और कुछ ही समय में उसे छोड़ बैठने वाले नर- वानरों की बहुत बडी़ मण्डली सर्वत्र विचरती देखी जा सकती

कृषि, व्यवसाय, शिल्प, कला आदि के सभी क्षेत्रों में अथक परिश्रम, प्रचण्ड- साहस, सन्तुलित विवेक और समुचित धैर्य की आवश्यकता होती है। आलसी, प्रमादी अधीर और आशंकाग्रस्त मनुष्य सामान्य सांसारिक प्रयोजनों तक में सफल नहीं हो पाते। आन्तरिक दुर्बलताएँ अपनी सहेली असफलताओं को निमंत्रण दे देकर बुला लाती हैं। व्यक्तित्व का परिष्कार ही सही- लोक श्रद्धा और आत्म- सन्तोष देने वाली महानता न सही- स्वार्थ साधना की दृष्टि से सम्पन्नता और सफलता तो हर किसी को अभीष्ट है ही। उसका आधार भी मनोबल बिना नहीं बनता। जहाँ इसका अभाव होगा वहाँ न स्वार्थ सधेगा और न परमार्थ। आन्तरिक अशक्ति हो बाह्य जीवन में अभिशाप ही बरसाती है। ऐसे व्यक्ति अपंग, असहाय की तरह जीते और रोते- कलपते बेमौत मरते हैं। आत्मबल का अभाव इतना बडा़ दुर्भाग्य है कि इसके कारण पग- पग पर खिन्नता, उद्विग्नता की व्यथा सहन करनी पड़ती है। ऐसे लोगों का न लोक सधता है, न परलोक। उनका ना स्वार्थ सिद्ध होता है न परमार्थ बनता है।

          परिस्थितियों का अपना कोई अस्तित्व नहीं, वे मनःस्थिति के अनुरूप बनती हैं। अप्रत्याशित कोई प्रतिकूलता सामने आ खडी़ हो तो भी वे देर तक ठहरती नहीं। रोग कीटाणु अशुद्ध रक्त में ही अपना अड्डा जमा पाते हैं। शुद्ध रक्त तो उन्हें बात की बात में खदेड़ कर बाहर कर देता है। प्रतिकूल परिस्थितियाँ मनःस्थिति के वृक्ष पर ही अमरवेल की तरह छाई और फलती- फूलती रहती हैं। महामानवों की जीवन- गाथाओं पर दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि उनमें से कोई भी जन्मजात एवं परम्परागत अनुकूलता लेकर नहीं जन्मा। हर एक को अपना रास्ता आप बनाना पड़ता है। लोगों ने उनको कन्धे पर नहीं चढा़या, वरन् वे स्वयं ही अपनी विशेषताओं के आधार पर हर किसी की आँखों के तारे बने और हृदयों में जा विराजे हैं। अनुकूलताएँ बरसी नहीं, वरन् अपने हाथों उनने उन्हें गढा़ है। चलना अपने ही पैरों पड़ता है, दूसरों के कन्धों पर लद कर चल सकना किसके लिए कब तक सम्भव हो सकता है?

          आत्म- बल की आवश्यकता हर क्षेत्र में है आत्म- बल उसकी प्रेरणा से उसी तरह उभरते हैं जैसे सौर- मंडल के ग्रह- उपग्रह सूर्य की आभा से प्रकाशवान् दीखते हैं। जीवन को जीवितों की तरह जीना हो तथा उसमें कुछ और आनन्द लेना हो तो आत्म- बल सम्पादित करने की उपेक्षा की नहीं जा सकती। बलिष्ठता की अनुगामिनी ही सम्पन्नता है। अस्तु, बलों में परम बल आत्म- बल के ब्रह्यवर्चस् उपार्जन को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

           शास्त्रकारों ने 'बल उपास्य' का निर्देश इसीलिए दिया और कहा है कि आत्मोत्कर्ष का लाभ बलहीनों को नहीं मिल सकता। सच भी है बलहीनों को न आत्मा मिल सकेगी और न परमात्मा। भौतिक जीवन में उनके पल्ले कुछ नहीं पड़ता। इस संसार के बाजार में सम्पदाएँ विभूतियाँ और उपलब्धियाँ समर्थता के मूल्य पर ही खरीदी  जाती हैं।
          जीवन की सार्थकता 'जीवित' के साथही है। जीवनी शक्तियुग को ही जीवित कहा जा सकता है। इसके अभाव में मनुष्य को जीवित मृतक ही कहा जा सकता है। खाने सोने की प्रक्रिया तो पेड़- पौधे भी पूरी करते हैं। जीवाणुओं में भी गतिशीलता होती है। पर उन्हें जीवितों का श्रेय सम्मान तो नहीं मिलता।

           चेतना की बलिष्ठता को अध्यात्म की भाषा में प्राण के नाम से पुकारा जाता है। प्राण अर्थात् जीव आत्मा की वह क्षमता है जो शरीर में ओजस् चिन्तन में तेजस् और आस्थाओं वर्चस् के नाम से जानी जाती है। इस अंतःक्षमता को, आत्मशक्ति को प्राण तत्व को अधिकाधिक मात्रा में संचय करने वाला ही जीवन का आनन्द लेता और उसे सार्थक बनाता है।
         
 गायत्री विद्या को प्राण तत्व के अभिवर्धन का आधारभूत साधना माना गया है। उसका तत्त्व दर्शन और उपासना प्रकरण दोनों ही इस आवश्यकता की पूर्ति करते है। भौतिक विज्ञान के सहारे आत्मिक विशिष्टताओं को उभारा और सुदृढ़ किया जा सकता है। आत्मिक क्षेत्र में प्राण शक्ति भर देने की विद्या को गायत्री कहा गया है।

सैषा गायत्री प्राणः अतो गायत्र्यां जगत्प्रतिष्ठतम्। यास्मिन् प्राणे सर्व देवा एक भवन्ति। सर्वे वेदा- कर्मांणि तत्फलं च, सैव गायत्री प्राण रूपा सती जगत आत्मा सा हैषा गयांस्तत्रे- त्नातवति, के पुनर्गयाः? प्राणाः वागादयो वैभवा''''''''''''गयत्राणाद् गायत्रीति प्रथिता।

अर्थात् यह गायत्री ही प्राण है। अतः वही समस्त विश्व में व्याप्त है। इस प्राण में ही समस्त देवता सन्निहित हैं। यह प्राण रूप गायत्री ही जगत की आत्मा है। वाणी नेत्र आदि समस्त इन्द्रियों में समाविष्ट प्राण की संरक्षक होने के कारण उसे गायत्री कहा जाता है।

प्राणो वै बलं। यत्प्राणे प्रतिष्ठितं तस्मादाहुर्बलं।
सत्यादोजीयः इत्येवम्वैषा गायत्र्यध्यात्म प्रतिष्ठिता।
साह्यौषा गयांस्तत्रे। प्राणा वै गयास्तत्प्राणांस्तत्रे। तद्यद्
गयांस्तत्रे गायत्री नाम् ।।
अर्थात्-  प्राण ही बल है। बल और प्राण एक ही है। परब्रह्म प्राणों का भी प्राण है। गायत्री का अध्यात्म यह प्राण ही है। प्राणों का परिष्कार करने की शक्ति सम्पन्न होने के कारण उसे गायत्री नाम दिया गया है।

प्राण शक्ति की आत्म- बल की अभिवृद्धि सामान्य मनुष्य में असामान्य क्षमताएँ विकसित करती है। उसे मूर्च्छित से जाग्रत बनाती है। आन्तरिक समर्थता से सम्पन्नं मनुष्य भौतिक और आत्मिक दोनों ही क्षेत्र में सर्वतोन्मुखी प्रगति कर संकने में सफल बन सकता है।

           गायत्री विद्या की उच्च स्तरीय साधना से प्राणशक्ति की अभिवृद्धि होती है। अस्तु, उसके प्रभाव परिणाम को ब्रह्मवर्चस् कहा जाता है। गायत्री के वरदान ब्रह्मवर्चस् को प्राप्त कर सकने वाला हर क्षेत्र में विभूतिवान बनता है। इस तथ्य का प्रतिपादन छान्दोग्य उपनिषद में इस प्रकार मिलता है-

स य एवमेतद्गायत्रं प्राणेषु प्रोत वेद प्राणी भवति सर्वमायुरेति ज्योग्जीवति महान्प्रजया पशुभिभर्वंति महान्कीर्त्यां महामनः स्यात्तद्व्रतम्।।
अर्थात्- यह गायत्री तत्व समस्त प्राणों में विद्यमान है। जो उसकी उपासना करता है वह विद्वान, प्राणवान्, दीर्घजीवी, यशस्वी, सुसम्पन्न्, उदार और महामानवी बनता है।

           वर्चस् की आत्मबल की आवश्यकता हर क्षेत्र में है। भौतिक किन्तु आध्यात्मिक। आत्मबल जिस प्राणशक्ति के सचंय से संपादित होता है, वह गायत्री महाशक्ति का अवलम्बन लेकर अर्जित की जा सकती है। गायत्री की प्रेरणा से आत्मबल ब्रह्मवर्चस् इसी तरह उभरता है, जैसे कि सौर मण्डल के ग्रह- उपग्रह सूर्य की आभा से प्रकाशवान दिखाई देते हैं। जीवन को जीवितों की तरह प्राणवानों की तरह, जीना हो, उसमें कुछ रस लेना हो आनन्द लेना हो, सोद्देश्य जीवन जीकर आर्जित करना हो तो आत्मबल ही संपादित किया जाना चाहिए। बलिष्ठता की अनुगामिनी ही सम्पन्नता है। अस्तु, बलों में परमबल के उपार्जन को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए हम 'वर्चस्' की उपासना करें, गायत्री का ब्रह्मतेज धारण कर प्राणवान बनें, इसी में दूरदर्शिता है।



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