बाल संस्कार शाला


हमारी संस्कृति महामानवों की टकसाल रही है, हर व्यक्ति का आचरण देवत्व से भरपूर रहा है। इन सब के पीछे था उनका प्रेरणाप्रद बचपन। हम सब जानते हैं कि हमारे व्यक्तित्व का विकास 5 -7 वर्ष की उम्र तक हो जाता है, जिसे ध्यान में रखते हुए संस्कार परिपाटी का प्रचलन आरम्भ से ही रहा है। पारिवारिक पंचशील और आस्तिकता से ओतप्रोत उत्कृष्ट वातावरण से बच्चों के दिव्य संस्कारों का रोपड़ सहज हो जाता था। बालक के बहुआयामी व्यक्तित्व के गढ़ने में माता पिता गुरु होते थे। वही समाज का भी महत्वपूर्ण योगदान होता था।
 
युगऋषि ने सुझाया समाधान
 

वर्तमान समस्याओं का एक मुश्त समाधान तथा श्रेष्ठ नागरिक गढ़ने का एक मात्र विकल्प है बालकों को संस्कारवान बनाना। बाल संस्कार शाला इसी महती आवश्यकता को पूर्ण करता है। नौनिहालोन के शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास की इस योजना में उन्हें मानवीय मूल्यों, सांस्कृतिक विरासत से परिचित कराया जाता है। बच्चों के माध्यम से सांस्कृतिक सामाजिक परिवर्तन सरल है। बालक एक गीली मिट्टी के सामान है जिसे किसी भी सांचे में ढाला जा सकता है। अतः बाल संस्कार शाला सञ्चालन के माध्यम से ईश्वरीय विभूतियों से परिपूर्ण परिवार, समाज व् राष्ट्र के इस उज्जवल भविष्य को गढ़ने का गौरव हम पाएं

संस्कार शाला का प्राण है जीवन विद्या

बाल संस्कार शाला सञ्चालन का प्राण है बच्चो में जीवन विद्या का शिक्षण। आचार्य का प्रतिबिम्ब होते हैं बच्चे। अतः जीवन विद्या का वही पाठ बच्चे सीखते हैं जो आचार्य के आचरण से छलकता है।

प्रातः जागरण से लेकर शयन तक की दिनचर्या में मानवीय मूल्यों के अभ्यास का समावेश इस पाठ में किया गया है। नियमित अभ्यास व आचरण में उतर जाने पर ये छोटे छोटे संस्कार बच्चे को महानता के राजमार्ग का अनुगामी बना देते हैं तथा उनके भीतर छिपी दिव्यता को प्रकट कर देते हैं। बालक हज़ार मनकों में हीरे की तरह पृथक चमकने लगता है।

खेल प्रेरक एवं मनोरंजक अभ्यास मन के साथ-साथ तन को भी पुष्ट करते हैं। वहीं सहयोग सहकार दया करुणा धैर्य अनुशासन साहस जैसे गुणों को उभरते हैं।

बाल संस्कार शाला सञ्चालन
हमारी मान्यता

बालक वस्ततुः भगवन के ही रूप हैं व सम्पूर्ण ईश्वरीय विभूतियों से परिपूर्ण हैं। मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता एवं दिव्यता की अभियक्ति ही विद्याध्यन का उद्देश्य है। आचार्य उस दैवीय ज्ञान के प्रकटीकरण में उद्दीपक तथा इस मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने वाला व्यक्तित्व है स्वामी विवेकानंद का कथन every soul is potentially divine हमारी इस मान्यता की पुष्टि करता है

सरल है सञ्चालन

घर की बैठक, दालान या मंदिर प्रांगण में शाला सञ्चालन किया जा सकता है जिसमें अधिकतम 25 बच्चों के बैठने की व्यवस्था की जा सकती है। स्थान के अनुरूप बच्चों की संख्या कम की जा सकती है। बच्चों के बैठने की व्यवस्था, पीने के लिए पानी व शौच की सामान्य व्यवस्था अनिवार्य है।

रविवार को सुविधानुसार

मात्र दो घंटे के लिए कक्षा का आयोजन किया जाता है जिसमे सामान्यत 1 घंटा 15 मिनट की बौद्धिक कक्षा तथा 45 मिनट खेलकूद के लिए निर्धारित है। एक श्याम पट, कुछ जानकारी देते फ़्लेक्स, चाक, डस्टर से सुसज्जित कक्षा का स्थान जीवंत हो उठता है। आचार्य हेतु बाल संस्कार शाला मार्गदर्शिका के साथ कुछ सहायक साहित्य पूर्णता भर देता है

5 से 13 वर्ष की आयुवर्ग के बच्चों का चयन किया जाय। बच्चे पास पड़ोस के ही हों। पालकों को उद्देश्य की जानकारी देकर उनकी अनुमति आवश्यक है।


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