प्रज्ञायोग आसन


प्रज्ञायोग व्यायाम की इस पद्धति में आसनों, उप- आसनों, मुद्राओं तथा शरीर संचालन की लोम- विलोम क्रियाओं का सुन्दर समन्वय है। इसमें सभी प्रमुख अंगों का व्यायाम संतुलित रूप से होता है। फलतः अंगों की जकड़न, दुर्बलता दूर होकर उनमें लोच और शक्ति का संचार होता है। निर्धारित क्रम व्यवस्था (टेबिल) विभिन्न परिस्थितियों में रहने वाले नर- नारियों के लिए भी बहुत उपयोगी है। व्यायाम शृंखला की हर मुद्रा के साथ गायत्री मंत्र के अक्षरों- व्याहृतियों को जोड़ देने से शरीर के व्यायाम के साथ मन की एकाग्रता और भावनात्मक पवित्रता का भी अभ्यास साथ ही साथ होता रहता है।

 सामान्य दिशा - निर्देश:


१)  ॐ भूः -(ताड़ासन)

विधिः-  धीरे- धीरे श्वास खींचना प्रारंभ करें। दाहिने हाथ को दाहिनी तरफ, बायें को बायीं तरफ ले जाते हुए दोनों पैर के पंजों के बल खड़े होते हुए शरीर को ऊपर की ओर खींचे। दृष्टि आकाश की ओर रखें। यह चारों क्रियाएँ एक साथ होनी चाहिए। यह समूचा व्यायाम ताड़ासन (चित्र नं- १) की तरह सम्पन्न होगा। सहज रूप से जितनी देर में यह क्रिया संभव हो, कर लेने के बाद अगली क्रिया (नं- २) की जाए।

लाभः-  हृदय की दुर्बलता, रक्तदोष और कोष्ठबद्धता दूर होती हैं। यह मेरुदण्ड के सही विकास में सहायता करता है और जिन बिन्दुओं से स्नायु निकलते हैं, उनके अवरोधों को दूर करता है।



२)  ॐ भुवः- (पाद हस्तासन)

विधिः-  श्वास छोड़ते हुए सामने की ओर (कमर से ऊपर का भाग, गर्दन, हाथ साथ- साथ) झुकना। हाथों को ‘हस्तपादासन’ चित्र नं. २ की तरह सामने की ओर ले जाते हुए दोनों हाथों से दोनों पैरों के समीप भूमि स्पर्श करें, सिर को पैर के घुटनों से स्पर्श करें। इसे सामान्य रूप से जितना कर सकें उतना ही करें। क्रमशः अभ्यास से सही स्थिति बनने लगती है।

लाभः-  इससे वायु दोष दूर होते हैं। इड़ा, पिंगला, सुषुम्रा को बल मिलता है। पेट व आमाशय के दोषों को रोकता तथा नष्ट करता है। आमाशय प्रदेश की अतिरिक्त चर्बी भी कम करता है। कब्ज को हटाता है। रीढ़ को लचीला बनाता एवं रक्त संचार में तेजी लाता है।



३)  ॐ स्वः (वज्रासन)

विधिः-  हस्तपादासन की स्थिति में सीधे जुड़े हुए पैरों को घुटनों से मोड़ें, दोनों पंजे पीछे की ओर ले जाकर उन पर वज्रासन (चित्र नं- ३) की तरह बैठ जायें। दोनों हाथ दोनों घुटनों पर, कमर से मेरुदण्ड तक शरीर सीधा, श्वास सामान्य। यह एक प्रकार से व्यायाम से पूर्व की आरामदेह या विश्राम की अवस्था है।

लाभः-  भोजन पचाने में सहायक, वायु दोष, कब्ज, पेट का भारीपन दूर करता है। यह आमाशय और गर्भाशय की मांसपेशियों को शक्ति प्रदान करता है, अतः हार्निया से बचाव करता है। गर्भाशय, आमाशय आदि में रक्त व स्नायविक प्रभाव को बदल देता है।




४)  तत् (उष्ट्रासन)

विधिः- घुटनों पर रखे दोनों हाथ पीछे की तरफ ले जायें। हाथ के पंजे पैरों की एड़ियों पर रखें। अब धीरे- धीरे श्वास खींचते हुए ‘उष्ट्रासन’ (चित्र नं- ४) की तरह सीने को फुलाते हुए आगे की ओर खींचे। दृष्टि आकाश की ओर हो। इससे पेट, पेडू, गर्दन, भुजाओं सबका व्यायाम एक साथ हो जाता है।

लाभः-  हृदय बलवान्, मेरुदण्ड तथा इड़ा, पिंगला, सुषुम्रा को बल मिलता है। पाचन, मल निष्कासन और प्रजनन- प्रणालियों के लिए लाभप्रद है। यह पीठ के दर्द व अर्द्ध- वृत्ताकार (झुकी हुई पीठ) को ठीक करता है।



५)  सवितुः (योग मुद्रा)

विधि:-  अब श्वास छोड़ते हुए पहले की तरह पंजों पर बैठने की स्थिति में आयें, साथ ही दोनों हाथ पीछे पीठ की ओर ले जायें व दोनों हाथ की अंगुलियाँ आपस में फैलाकर धीरे- धीरे दोनों हाथ ऊपर की ओर खींचे और मस्तक भूमि से स्पर्श कराने का प्रयास ‘योगमुद्रा’ (चित्र नं.५) की तरह करें।

लाभः-  वायुदोष दूर करता है। पाचन संस्थान को तीव्र तथा जठराग्रि को तेज करता है। कोष्ठबद्धता को दूर करता है। यह आसन मणिपूरक चक्र को जाग्रत् करता है।


६)  वरेण्यं (अर्द्ध ताड़ासन)

विधि:- अब धीरे- धीरे सिर ऊपर उठायें तथा श्वास खींचते हुए दोनों हाथ बगल से आगे लाते हुए सीधे ऊपर ले जायें। बैठक में कोई परिवर्तन नहीं। दृष्टि ऊपर करें और हाथों के पंजे देखने का प्रयत्न करें। चित्र नं- ६ यह ‘अर्धताड़ासन’ की स्थिति है।

लाभः- हृदय की दुर्बलता जो दूर कर रक्तदोष हटाता है और कोष्ठबद्धता दूर होती है। जो लाभ ताड़ासन से होते हैं, वे ही लाभ इस आसन से होते हैं।



 ७)  भर्गो (शशांकासन)

विधिः- श्वास छोड़ते हुए कमर से ऊपर के भाग आगे (कमर, रीढ़, हाथ एक साथ) झुकाकर मस्तक धरती से लगायें। दोनों हाथ जितने आगे ले जा सकें, ले जाकर धरती से सटा दें। ‘शशांकासन’ (चित्र नं- ७) की तरह करना है।

लाभः- उदर के रोग दूर होते हैं। यह कूल्हों और गुदा स्थान के मध्य स्थित मांसपेशियों को सामान्य रखता है साइटिका के स्नायुओं को शिथिल करता है और एड्रिनल ग्रंथि के कार्य को नियमित करता है। कब्ज को दूर करता है।



 ८)  देवस्य (भुजंगासन)

विधिः-  हाथ और पैर के पंजे उसी स्थान पर रखते हुए, श्वास खींचते हुए, कमर उठाते हुए धड़ आगे की ओर ले जायें। घुटने जंघाएँ भूमि से छूने दें। सीधे हाथ पर कमर से पीछे की ओर मोड़ते हुए सीना उठायें, गर्दन को ऊपर की ओर तानें। चित्र नं- ८ की तरह ‘भुजंगासन’ जैसी मुद्रा बनायें।

लाभः-  हृदय और मेरुदण्ड को बल देता है, वायु दोष को दूर करता है। यह भूख को उत्तेजित करता है तथा कोष्ठबद्धता और कब्ज का नाश करता है। यह जिगर और गुर्दे के लिए लाभदायक है।



९)  धीमहि (तिर्यक् भुजंगासन बायें)

विधि-  चित्र नं- ८ की मुद्रा में कोई परिवर्तन नहीं, केवल गर्दन पूरी तरह बायीं ओर मोड़ते हुए दाएँ पैर की एड़ी देखें।

लाभ-  भुजंगासन जैसे लाभ अभ्यासकर्त्ता को प्राप्त होते हैं।



१०)  धियो (तिर्यक भुजंगासन दाएँ)

विधि- शरीर की स्थिति पहले जैसे रखते हुए गर्दन दाहिनी ओर मोड़ते हुए बायें पैर की एड़ी देखें।

लाभ- भुजंगासन जैसे लाभ अभ्यासकर्त्ता को मिलते हैं।



११) यो नः (शशांकासन)

विधि-  श्वास छोड़ते हुए कमर से ऊपर के भाग आगे (कमर, रीढ़, हाथ एक साथ) झुकाकर मस्तक धरती से लगायें। दोनों हाथ जितने आगे ले जा सकें, ले जाकर धरती से सटा दें। भुजंगासन की स्थिति में ही पीछे जाकर एड़ियों पर बैठते हैं।

लाभ-  शशांकासन के अनुसार ही (क्रमांक- ७) के लाभ प्राप्त होते हैं।



१२)  प्रचोदयात् (अर्द्ध ताड़ासन)

विधि- यह मुद्रा, मुद्रा क्रमांक ६ की तरह ‘अर्द्ध ताड़ासन’ की होगी।

लाभ- अर्द्ध ताड़ासन जैसे लाभ।

 १३)  भूः (उत्कटासन)

विधि-  इस मुद्रा में पंजों के बल ६ उत्कट आसन (चित्र नं- १३) की तरह बैठते हैं। सीना निकला हुआ, हाथ सीधे भूमि छूते हुए। श्वास की गति सामान्य रखें।

लाभ-  पिण्डली मजबूत बनती हैं। शरीर संतुलित होता है।





 १४) भुवः (पाद हस्तासन)

विधि-  घुटनों से सिर लगाते हुए एवं श्वास छोड़ते हुए कूल्हों को ऊपर उठाते हुए (चित्र नं- १४) की तरह पादहस्तासन की स्थिति में आयें।                     

लाभ-  मुद्रा क्र. दो की तरह वायु दोष दूर होते हैं।




 १५) स्वः (पूर्व ताड़ासन)

विधि-  धीरे- धीरे श्वास खींचते हुए दोनों हाथों को सिर के साथ ऊपर उठाते हुए दोनों हाथों को ऊपर ले जायें। दोनों पैर के पंजों के बल खड़े होते हुए शरीर को ऊपर की ओर खींचें। दृष्टि आकाश की ओर रखें। यह चारों क्रियाएँ एक साथ होनी चाहिए। यह समूचा व्यायाम ६ पूर्व ताड़ासन (चित्र नं- १५) की तरह सम्पन्न होगा। सहज रूप से जितनी देर में यह क्रिया संभव हो, कर लेने के बाद अगली क्रिया के लिए अगला नं० बोला जाए।

लाभः-  क्र. १ की तरह हृदय दुर्बलता को दूर कर रक्तदोष ठीक करता है।


 १६) ॐ -- बल की भावना करते हुए सावधान-

विधि-  ॐ का गुंजन करते हुए हाथों की मुट्ठियाँ कसते हुए बल की भावना के साथ कुहनियाँ मोड़ते हुए मुट्ठियाँ कंधे के पास से निकालते हुए हाथ नीचे लाना सावधान की स्थिति में। यह क्रिया श्वास छोड़ते हुए सम्पन्न करें। अंत में शवासन करें।

लाभः- समग्र स्वास्थ्य लाभ की कामना शरीर में स्फूर्ति तथा चैतन्यता आती है, मन प्रसन्न होता है।
इस प्रज्ञा योग व्यायाम को कम से कम दो बार करायें। प्रथम बार गिनती में तथा द्वितीय बार गायत्री मंत्र के साथ आध्यात्मिक विकास हेतु करायें।





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