देवात्मा हिमालय एवं ऋषि परंपरा

हिमालय की अपनी महता है। सारे ऋषियों ने वहीं निवास किया था। स्वर्ग भी पहले वहीं था। ऋषियों की भूमि भी वहीं है। बड़ी सामर्थ्यवान, बड़ी संस्कारवान भूमि है। हमको भी तप करने के लिए वहाँ भेज दिया गया था और अब हम यहाँ सप्तऋषियों की भूमि शांतिकुंज में है। देवात्मा हिमालय का अपना महत्त्व है। गंगा का अपना महत्त्व है। गंगा अपने में आध्यात्मिक शक्तियों को समेटे हुए है। यह न केवल उसके पीने के पानी में है, बल्कि वह जहाँ होकर बहती है, वहाँ का वातावरण भी कुछ विशेष होता है। सप्तऋषियों की भूमि, जहाँ सातों ऋषियों ने तपश्चर्या की थी और जो अभी भी ऊपर आसमान में दिखाई पड़ते हैं। उनकी जो भूमि है सप्तऋषि भूमि वह भी यहीं हैं, जहाँ आपका यह शांतिकुंज बना हुआ है और भी गंगा के किनारे बहुत से ऐसे स्थान हैं, जहाँ सिंह और गाय कभी एक घाट पर पानी पीने लगते थे। ऐसे प्राणवान स्थान भी होते हैं और सिद्धपुरुष भी होते हैं। हम यहाँ ऐसे स्थान पर ही आए हैं। यहाँ आकर हमने आपकी भावनाओं को दिव्यता का स्मरण कराने के लिए देवात्मा हिमालय का एक मंदिर बना दिया है। हिमालय का मंदिर और कहीं नहीं मिलेगा आपको। लोगों ने देवताओं के मंदिर बनाए हैं, अमुक के मंदिर बनाए हैं, तमुक के मंदिर बनाए हैं, पर हिमालय का मंदिर सिर्फ आपको यहीं देखने को मिलेगा। हमने यह भी बनाया हैं। यह सप्तऋषियों को भूमि है। सप्तऋषियों की भूमि और कहाँ है, बताइए आप? कहीं नहीं है, मात्र यहीं पर है, जहाँ आज शांतिकुंज बना हुआ है। गंगा पहले यहीं पर बहती थी। यहाँ की थोड़ी सी जमीन भर गई है, इसलिए शांतिकुंज वाली जमीन में जो पानी हजारों वर्षों से बहता था वह बंद नहीं हुआ है। वह धारा अभी भी बह रही है, उसके लिए सामने रास्ते बना दिए गए हैं।

              हिमालय मंदिर क्या है? ये प्रतीक क्यों बना दिए है? प्रतीकों का अपना अलग महत्त्व है। एकलव्य ने द्रोणाचार्य का प्रतीक बना लिया था। रामचंद्र जी ने शंकर जी का प्रतीक बनाया था। जब वे वनवास गए थे और सीताहरण के कारण दुखी मन से वन-वन भटक रहे थे, उस समय उन्हें जब प्रतीक की आवश्यकता हुई तो उन्होंने शंकर जी के मंदिर की स्थापना की थी, रामेश्वर में। ये सब प्रतीक हैं जैसे तिरंगा झंडा अपना राष्ट्रीय प्रतीक है। कम्युनिस्टों का भी झंडा होता है। लोग कहते हैं कि वे प्रतीकों को नहीं मानते। कैसे नहीं मानते? लाओ हम उनके झंडे को उखाड़ फेंके, फिर देखो क्या होगा? मुसलमान भी प्रतीकों को नहीं मानते हैं क्या? मक्का, मदीना में प्रतीक ही तो रखा हुआ है जिसका वे चुंबन लेते हैं। समस्त देवात्मा हिमालय का मदिर कहीं था नहीं। भारतवर्ष का यह एक बड़ा अभाव था। वह हमने दूर किया है, ताकि साधना की दृष्टि से कोई आदमी आना चाहे तो इस स्थान पर आकर वह महत्त्वपूर्ण लाभ उठा सके। इसलिए यह बनाया गया है। मुनासिब जगह पर मुनासिब काम होते हैं। हिमालय में बहुत सारे ऋषि रहते हैं और जो भी ऋषि आए हैं, वे सब हिमालय से आए हैं। उन्हीं ऋषियों का स्मरण दिलाने के लिए हमने यह कोशिश की है कि जो उन्होंने काम किए थे, उनको समेट करके पूरा न सही, थोड़ा-थोड़ा काम करें तो अच्छा होगा। हमने वही किया है।


परशुराम
जी का नाम आपने सुना होगा। उन्हें शंकर भगवान ने एक कुल्हाड़ा दिया था। उस कुल्हाड़े से उनने लोगों के सिर काट डाले थे। जो खराब दिमाग वाले थे, बददिमाग वाले थे, उन बददिमाग वालों के सिर काटकर परशुराम जी ने फेंक दिए थे और वह भी इक्कीस बार। सिर काटने से मतलब? सिर काटना तो मेरे ख्याल से ऋषि के लिए क्या संभव रहा होगा? यह कथन तो आलंकारिक मालूम पड़ता है। दिमाग बदल जरूर दिए होंगे। दिमाग बदलने के लिए विचार क्रांति की दृष्टि से हम लगभग वही काम कर रहे हैं जो कि परशुराम जी ने फरसा लेकर किया था। फरसा तो हमारे हाथ में नहीं है, मगर कलम जिंदा है। दोनों चीजें हमारे हाथ में हैं और उन्हीं के सहारे हम लोगों के दिमागों को बदलने के लिए निरंतर प्रयत्नशील हैं। परशुराम जी यमुना जी को भी आए थे और फरसा भी लाए थे। परशुराम जैसा लगभग वही काम हमने किया है।





भगीरथ का नाम आपने सुना होगा। उनने हिमालय पर तप किया था और तप करके गंगा को लाए थे। गंगा जब धरती पर आने लगी तो उनके प्रचंड वेग को देखकर भगीरथ ने सोचा कि या तो हमारे बूते का नहीं है। गंगा जी ने भी कहा कि जब मैं नीचे जमीन पर गिरूँगी तो सूराख हो जाएगा। सो तुम मुझे स्वर्ग से बुलाकर कैसे धारण करोगे? तब भगीरथ ने शकर जी से मदद माँगी। शंकर जी ने अपनी जटाएँ फैला दीं। इस तरह स्वर्ग से जब गंगा आई थीं तो पहले शंकर जी की जटाओं में आई, पीछे जमीन पर गिरी। भगीरथ आगे-आगे चले, इसलिए गंगा भागीरथी कहलाई





चरक
ऋषि को आप जानते हैं क्या? चरक ऋषि प्राचीन काल में हुए हैं। उन्होंने दवाओं, प्राकृतिक औषधियों के संबंध में शोधें की थीं, खोजें की थीं। उनका स्थान केदारनाथ के पास था, जहाँ सिखों का गुरुद्वारा है। केदारनाथ के पास फूलों की घाटी है जो उन्हें बहुत प्रिय थी। अब तो वहाँ तोड़-फोड़ के कारण सब जड़ी-बूटियाँ नष्ट हो गई हैं। वहाँ तो अब फूलों की घाटी भी नहीं है लेकिन अगर कभी आपको फूलों की घाटी देखने का मन हो तो आप गोमुख से आगे ऊपर तपोवन जाना, नंदनवन जाना। तपोवन और नंदनवन ऐसे स्थान हैं, जहाँ विचित्र दुर्लभ फूलों की छटा देखते ही बनती है। इनमें ब्रह्मकमल भी शामिल है। वह आपको वहीं मिलेगा। चरक के रास्ते पर हम भी चले हैं। वनौषधियों के प्राचीन श्लोकों को ठीक तरीके से खोज-बीन करने के लिए और उनके सही और गलत होने की बावत जानकारी प्राप्त करने के लिए यहाँ ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना की है। जो कुछ भी संभव है पुराना और नया अर्थात पुराने ढंग से कैसे शोध की जाती थी और नए ढंग से कैसे की जाती? यह हमने यहाँ बनाने की कोशिश की है।


व्यास
जी ने अठारह पुराण लिखे थे। दर्शन भी लिखे थे। पुराणों और दर्शनों को हम लिख तो नहीं सके, पर हमने उनका अनुवाद किया है। वेदों का अनुनाद किया है। व्यास जी ने जो काम किए थे, उस रास्ते पर हम भी चले है और यहाँ जब आप शांतिकुंज में आएँगे तो देखेंगे कि उसकी निशानी यहाँ भी विद्यमान है। महर्षि पतंजलि ने गुप्तकाशी में रहकर योगाभ्यास किया था। आप जब आएँगे तो देखेंगे कि यहाँ जो कल्प साधना शिविर कराए जाते हैं, अन्य दूसरे शिविर कराए जाते हैं और यहाँ योगाभ्यासों का, प्राणायामों का विधि-विधान सिखाया जाता है, वह हमने भी किया है और आपको भी सिखाते हैं। पुराने जमाने के ऋषियों में याज्ञवल्क्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने यज्ञ के संबंध में शोध की थी।





पतंजलि
ने रुद्रप्रयाग में अलकनंदा एवं मंदाकिनी के संगम स्थल पर योग विज्ञान के विभिन्न प्रयोगों का आविष्कार और प्रचलन किया था। शांतिकुंज में योग साधना के माध्यम से इस मार्ग पर चलने वाले जिज्ञासु साधकों को दिशाधारा प्रदान की जाती है।










याज्ञवल्क्य
ने त्रियुगी नारायण में यज्ञविद्या का अन्वेषण किया था। आज यज्ञविज्ञान की श्रृंखला को फिर से खोजकर समय के अनुरूप अन्वेषण करने का दायित्व ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान ने अपने कंधों पर लिया है।










विश्वामित्र
ऋषि थे। वे गायत्री के मंत्रद्रष्टा हैं। गायत्री मंत्र जो हम बोलते हैं, उसका विनियोग है, सविता देवता हैं और विश्वामित्र ऋषि। गायत्री छंद विनियोग है। विश्वामित्र उसके पारंगत थे। विश्वामित्र का भी यहाँ स्थान बना हुआ है। गायत्री का मंदिर भी बना हुआ है शांतिकुंज में। हमने भी गायत्री के पुरश्चरण किए हैं। विश्वामित्र को भी हम गुरु मानते हैं, जो हमारे हिमालय वाले गुरु हैं, वे अगर विश्वामित्र हो तो आप अचंभा मत मानना।





उत्तरकाशी में आरण्यक हैं। आरण्यक किसे कहते हैं? आरण्यक उसे कहते हैं जहाँ लोग वानप्रस्थ लेकर समाजसेवा के लिए समर्पित हो जाते हैं उनके निवास स्थान को आरण्यक कहते हैं। गुरुकुल छोटे बच्चों का होता है। विद्यार्थियों का होता है। वहाँ तो आरण्यक ही था, पर यहाँ पर हमने गुरुकुल और आरण्यक दोनों चलाने की कोशिश की है। बच्चों का भी यहाँ विद्यालय है खास विद्यालय जिसके बारे में कहना चाहिए कि हिंदुस्तान भर में शायद ही कहीं ऐसा विद्यालय आपको देखने को मिले। प्रचारक और लोकसेवी तैयार करने के लिए हमने यहाँ आरण्यक बनाया है। भगवान बुद्ध ने भी बनाए थे नालंदा और तक्षशिला में। उनमें प्रचारक और कार्यकर्त्ता तैयार किए जाते थे। हमारे यहाँ भी कार्यकर्ताओं को संगीत की शिक्षा, व्याख्यानों की शिक्षा, समाजसेवा की शिक्षा, चिकित्सा की शिक्षा आदि सारी शिक्षाएँ दी जाती हैं। यहीं जमदग्नि का आश्रम है। नारद जी का नाम तो सुना है न आपने? वे संगीत के द्वारा ही सारी की सारी भक्ति का प्रचार करते थे और हिंदुस्तान से लेकर सारे विश्वभर में घूमते थे। चाहे जब भगवान के पास जा पहुँचते थे। उनका स्थान कहाँ था? विष्णु प्रयाग में उन्होंने तप किया था। वहाँ तो हम आपको नहीं ले जा सकते, लेकिन यहाँ पर नारद जी का जो काम था संगीत शिक्षा का, वह हमने किया है, क्योंकि इस जमाने में लोक शिक्षा के लिए संगीत बेहद आवश्यक है। संगीत के बिना देहाती इलाकों में जहाँ विना पढ़े -लिखे लोग अधिक रहते हैं, उनको प्रशिक्षित करना बड़ा मुश्किल है। हमने उसकी भी यहाँ व्यवस्था बना ली है।


देवर्षि नारद ने गुप्तकाशी में तपस्या की। वे निरंतर अपने वीणावादन से जनजागरण में निरत रहते थे। शांतिकुंज के युगगायन शिक्षण विद्यालय ने अब तक हजारों ऐसे परिव्राजक प्रशिक्षित किए हैं।










वसिष्ठ जी का तो नाम आपने सुनाई। उन्होंने राजनीति और धर्म-दोनों को मिलाया था। राजा दशरथ के यहाँ भी रहते थे। धर्म का भी काम करते थे और राजनीति की भी देख−भाल करते थे। हमारी भी जिंदगी कुछ इसी तरह की हो गयी है। पौने चार वर्ष तो जेलखाने में रहना पड़ा। सन् १९२० से लेकर सन् १९४२ तक बाइस साल तक हम दिन रात राजनीति में लगे रहे, समाज को ऊँचा उठाने के लिए और अँग्रेजों को भगाने के लिए। देश की आजादी के लिए हमने जो काम किया है, वसिष्ठ भगवान भी यही काम करते थे।







आद्य शंकराचार्य का नाम सुना है न आपने। जिन्होंने चारों धाम बनाए थे। चारों धाम कौन-कौन से हैं? रामेश्वरम्, द्वारिका, बद्रीनाथ और जगन्नाथपुरी। चारों धामों में चार मठ उन्होंने स्थापित किए थे। उनका अपना निवास स्थान था ज्योतिर्मठ। ज्योतिर्मठ के पास शहतूत का एक पेड़ था। उसी के नीचे उनकी गुफा थी। वे वहीं रहते थे। वहीं उनने अपने ग्रंथ लिखे थे और वहीं तप किया था और वहीं जो कुछ भी काम कर सकते थे, चारों धाम बनाने का, वे भी योजनाएँ उन्होंने वहीं बनाई थीं। मांधाता को कहकर वह काम उन्होंने वहीं से कराया था। हमने भी यहीं से बैठकर गायत्री के चौबीस भी सौ धाम बनाए हैं। इसके अलावा भी चौबीस सौ और छोटे-छोटे धाम हैं। शंकर जी का एक ही धाम है रामेश्वर में और जगन्नाथ जी का एक ही धाम है, बद्रीनाथ का एक ही धाम है लेकिन गायत्री के हमने चौबीस सौ धाम बनाए हैं।

आपने पिप्पलाद ऋषि का नाम सुना है। वह भी यहीं रहते थे हिमालय पर लक्ष्मण झूला के पास। पीपल के फल खाकर के ही उनने जिंदगी काट दी थी, क्योंकि वे जानते थे-'जैसा खाए अन्न, वैसा बने मन'। यदि हम अपने मन को अच्छा बनाने की फिक्र में हैं तो सबसे पहले शुरुआत अच्छे खाने से करनी चाहिए। अच्छे अन्न से करनी चाहिए। अच्छे अन्न का मतलब होता है कि बेईमानी से कमाया हुआ अन्न नहीं हो। बिना हराम का जो अपने खून पसीने से कमाया हो, उसी को खा करके रहना चाहिए। पीपल के पेड़ उन दिनों ज्यादा थे। उनके फल भी ज्यादा होते होगे। तोड़-ताड़कर उन्हें साल भर के लिए रख लेते रहे होगे और उसे ही खाते रहे होंगे। हमारा भी आहार ऐसा ही रहा है। आपको मालूम है न, जौ के ऊपर हम कितने दिन तक रहे हैं। अभी भी ठीक तरह से अन्न नहीं खाते हैं।

हर की पौड़ी हरिद्वार में सर्वमेध यज्ञ में हर्षवर्धन ने अपनी सारी संपदा तक्षशिला विश्वविद्यालय निर्माण हेतु दान कर दी थी। शांतिकुंज के सूत्रधार ने अपनी लाखों की संपदा गायत्री तपोभूमि तथा जन्मभूमि में विद्यालय निर्माण हेतु दे दी।


कणाद ऋषि ने अथर्ववेदीय शोध परंपरा के अंतर्गत अपने समय में अणुविज्ञान का, वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का अनुसंधान किया था। ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में अध्यात्म-देव एवं विज्ञान-दैत्य के समन्वय का समुद्र मंथन चल रहा है।


बुद्ध
के परिव्राजक संसार भर में धर्मचक्र प्रवर्तन हेतु दीक्षा लेकर निकले थे। शांतिकुंज में मात्र अपने देश में धर्मधारणा के विस्तार हेतु ही नहीं, संसार के सभी देशों में देव संस्कृति का संदेश पहुँचाने हेतु परिव्राजक दीक्षित होते हैं।









आर्यभट्ट
ने सौरमण्डल के ग्रह-उपग्रहों का ग्रह-गणित जाना था। शांतिकुंज में एक समग्र वेधशाला बनाई गई है एवं ज्योतिर्विज्ञान पर अनुसंधान कार्य किया जा रहा है।











Photos



अपने सुझाव लिखे: