निर्मल जीवन जीने का अर्थ अपने शारीरिक क्रियाकलापों को अच्छा बनाना और अपनी मनोभूमि को परिष्कृत करना है। मन में विचारणाएँ ऊँचे किस्म की हों और शरीर हमारा काम करें, सिर्फ ऊँचे किस्म के काम करे। इन दो गतिविधियों को आप योगाभ्यास कहिये, साधना कहिये, आध्यात्मिक प्रयोजन कहिये। जो आदमी इस काम को कर लेता है, वह स्वयं सब प्रकार से शक्तिशाली हो जाता है और जो शक्तिशाली हो गया है, उस शक्तिशाली मनुष्य के लिए सम्भव है कि अपनी जो क्षमताएँ हैं, उन्हें केवल अपनी उन्नति के लिए सीमाबद्ध न रखें मनुष्यके अन्तरंग की उदारता जब तक विकसित न हुई, दया जब तक विकसित न हुई, करुणा जब तक विकसित न हुई, आत्मीयता विकसित न हुई, और अपने आप को विशाल भगवान् के रूप में परिणत कर देने की इच्छा उत्पन्न न हुई, तब तक आदमी केवल अपने आपको निर्मल बना करके भी अपूर्ण ही बना रहेगा। मनुष्य को अपने आप को निर्मल और उदात्त बनाना चाहिए। यही तो आध्यात्मिकता की राह पर चलने वाले दो कदम हैं। कोई भी आदमी आध्यात्मिकता की राह पर चलना चाहता है, तो उसको दोनों ही कदम आगे बढ़ाना है। कोई मंजिल आपको पूरी करनी है, तो लेफ्ट- राइट, लेफ्ट- राइट चलते हुए ही तो मंजिल पार करेंगे और कोई तरीका दुनिया में नहीं है। अब मैं चाहता हूँ कि लोगों के दिमाग में से वहम निकाल दिये जाने चाहिए। लोगों के दिमाग पर न जाने किन लोगों ने वहम पैदा कर दिया है कि भगवान् का नाम लेने से और उसकी माला जपने से और बार- बार पुकारने से और मंदिर के दर्शन करने से, कथा सुनने से और पंचामृत, पंजीरी खा जाने से, स्तोत्र पाठ करने से मनुष्य की आत्मा को शान्ति मिल सकती है और वह अपनी आत्मिक प्रगति कर सकता है।
यह बिलकुल नामुमकिन बात है। उसके पीछे कोई दम नहीं है। इसके पीछे राई भर सच्चाई नहीं है। इतनी ही राई भर की सच्चाई उसके भीतर है कि आदमी पूजा पाठ करे और भगवान् का नाम ले, ताकि भगवान् का काम जिसको हम भूल गये, उसको हम याद करें, भगवान् के कामों के लिए कदम बढ़ायें। बस इतना ही पूजा- पाठ का मतलब है। अगर हम पूजा- पाठ ढेरों के ढेरों करते रहें और भगवान् की खुशामद करते रहें, भगवान् को जाल में फँसाने के लिए अपनी चालाकियाँ इस्तेमाल करते रहें और ये मानते रहें कि भगवान् ऐसा बेवकूफ आदमी है कि माला घुमाने के बाद में अपना नाम सुनने के बाद में अपनी खुशामद लेकर के और रिश्वत लेकर के हमारे मन चाहे प्रयोजन पूरा कर देगा और हमको भौतिक सम्पदाओं से परिपूर्ण कर देगा और हमको आत्मिक शान्ति दे देगा, तो यह बिलकुल ही नामुमकिन बात है। भगवान् के स्वरूप को हम समझने में बिलकुल असमर्थ हैं। ये सिर्फ चालाकियाँ हैं। इसके पीछे जो छिपी हुई बात थी, उतनी ही बात छिपी हुई थी कि लोग यह समझ पायें कि भगवान् और जीव का कोई सम्बन्ध है।
भगवान् की कोई इच्छा है। मनुष्य के जीवन के साथ में भगवान् की कुछ प्रेरणाएँ जुड़ी हुई हैं। उन बातों को याद कराने के लिए और उन बातों को स्मरण कराने के लिए ही सारा पूजा- पाठ का, सारे के सारे आध्यात्मिकता का खाँचा जान- बूझकर खड़ा किया गया है। आदमी अपने को कैसा भूला हुआ है? अपने आप को शरीर समझता है, आत्मा अपने आप को नहीं समझता। उसकी याद दिलाने के लिए ये सब कुछ है और इसमें कुछ दम नहीं है। अगर आदमी को यह (ईश्वरीय अनुशासनों का) ध्यान ही न हो, घटिया और कमीना जीवन जिये, खुराफात, पूजा- पाठ करके लम्बे- चौड़े ख्वाब देखे, तो उस आदमी को शेखचिल्ली के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। ये जो दो कदम हैं- आत्मा की उन्नति के और मनुष्य जीवन को सफल बनाने के, जिनको मैंने अभी- अभी आपको निर्मल जीवन जीना कहा, उदार जीवन जीना कहा- वह साधना है। साधना निश्चित होती है। उपासना एक छोटा- सा अंग है।
जो पूजा की कोठरी में दस- बीस मिनट बैठकर की जा सकती है, लेकिन उपासना तो बीज हुआ। बीज तो थोड़ी देर ही बोया जाता है, पर खेती तो साल भर की जाती है। जो पूजा- पाठ दस- पाँच मिनट किया गया है, उस पूजा- पाठ को सारे जीवन भर चौबीस घंटे अपने जीवन को निर्मल बनाने और परिष्कृत बनाने में खर्च किया जाना चाहिए। यही तो उपासना है, यही तो साधना है। इस तरह का साधनात्मक जीवन जीने की प्रतिज्ञा जिस दिन ली जाती है। वह दिन ही दीक्षा दिवस होता है। जब मनुष्य अपने उद्देश्य के बारे में खबरदार हो जाता है, सावधान हो जाता है और ये ख्याल करता कि मैं दूसरे लोगों के तरीके से दुनिया के आकर्षणों में, प्रलोभनों में और भ्रमों में फँसने वाला नहीं हूँ, मैं ऊँचा जीवन जिऊँगा, ऊँचा जीवन जीने के लिए गतिविधियाँ बनाऊँगा, कार्यक्रम बनाऊँगा, योजना बनाऊँगा, जिस दिन वह आदमी संकल्प करता है, समझना चाहिए कि उस दिन उसकी दीक्षा हो गई। उस दिन वह भगवान् से जुड़ गया और अपने उद्देश्यों के साथ में जुड़ गया और महानता के साथ जुड़ गया और जीवन की सफलता की मंजिल प्रारम्भ हो गयी। इस तरह का श्रेष्ठ जीवन और इस तरह का व्रत जिस दिन लिया गया है, समझना चाहिए कि उसी दिन आदमी का नया जन्म हो गया। ये नया जन्म है।
Child Shriram - Birth to childhood 1911 – 1925 Birth : in Brahma muhurt (very early hours in the morning) of Ashvin Krishna Triyodashi Vikram Samvat 1968 corresponding to 20th September 1911 in Anwalkheda village in Agra district in a rich Brahman family.Father: Pt. Roopkishore Sharma; Mother: Dankunwari... See More
The eminent patriot, scholar and founder of the Banaras Hindu University Pt. Madan Mohan Malaviya initiated Sriram in the worship of Gayatri mantra when he was nine years old. On the auspicious day of Vasant Panchami festival, January 18, 1926, a guru by the name of Swami Sarveshvaranandji -a great... See More
On the completion of the 24
mahapurashcharanas, Pandit Sriram Sharma Acharyaji established Gayatri
Tapobhumi at Mathura (India) in 1953. He organised a grand
Gayatri Yajna in 1958, which served as a base to launch the Yug Nirman Yojna, a
global movement for moral, cultural, intellectual and spiritual refinement and
reconstruction. The objectives of this movement... See More
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