दैनिक जीवन में योग

 मनुष्य को उसकी योग्यता के अनुसार ही ईश्वर शरीर-स्वास्थ्य, धारणा और इंद्रियाँ देता है। वास्तव में यह सारी चीजें परमात्मा द्वारा दान स्वरूप नहीं बल्कि उसकी योग्यता द्वारा प्राप्त इच्छा के अनुसार ही मिलती हैं।

समय को बेकार खोना, मनोवासना के गुलाम होकर अपने जीवन को नष्ट करना है।

जिस वाद-विवाद में कोई अर्थ-निष्पत्ति न हो वह बेकार की बड़-बड़ है, जिससे शक्ति और आयुष्य का व्यर्थ नाश होता है।

लाख मिथ्या शब्द बोलकर अपनी पंडिताई बताने की अपेक्षा एक सत्य बोलना अधिक कीमती और सम्मानास्पद है। केवल बुद्धि की कवायद कर मिथ्या को सत्य का रूप देना यह उन्नति की दृष्टि से अत्यन्त हेय है।

सभा मंच पर खड़े होकर सफाईदार व्यर्थ की लम्बी-चौड़ी बातें कर शेखी बघारने की अपेक्षा अपने घर की साफ-सफाई करके अधिक लोग शिक्षा ग्रहण करेंगे, ऐसा विश्वास है।

देवादिकों के अवतार हम उनके पुरुषार्थ से ही मानते हैं। उसी प्रकार संसार के किसी भी मनुष्य की योग्यता उस के कार्य-कलापों पर ही निर्भर है, केवल बातों पर नहीं।

आलीशान परन्तु मलिन राज भवन की अपेक्षा घास-फूँस की स्वच्छ और सुव्यवस्थित कुटिया को आरोग्य और मानसिक शान्ति के लिए अधिक हितकर होने के कारण में अधिक श्रेष्ठ मानता हूँ। वैसे ही बिना धोये हुए, अन्न से दूषित रेशमी वस्त्र को नित्य पहनने की अपेक्षा प्रतिदिन धोकर स्वच्छ की हुई खादी की धोती भोजन के समय पहनना अधिक पसन्द है।

अपनी बुद्धि का उपयोग किसी वज्र मूर्ख के सन्मुख करना जैसे बेकार है, वैसे ही अपने साहस का मृत्यु के सामने प्रदर्शन करते हुए पर्वत से नीचे कूदकर अपनी जान गँवाना व्यर्थ है। हमें पात्रता देखकर, बुद्धि और अवसर देखकर ही धैर्य अथवा साहस का उपयोग करना चाहिए।

श्रेष्ठ व्यक्ति अपने जीवन को केवल जीने के लिए ही नहीं, अपितु महत्वपूर्ण कार्यों के लिए उपयोग करते हैं और समय आने पर प्राण देकर भी अपने उद्दिष्ट कार्य को पूर्ण करते हैं।

मनुष्य को विद्याध्ययन की अपेक्षा सरल व्यवहार से ही अधिक ज्ञान प्राप्त हो सकता है पर वह सत्संगति द्वारा ही प्राप्त होता है।

अज्ञानी लोग वस्तु के स्थिति परिवर्तन को ही मृत्यु मानकर उसके लिए शोक करते हैं, पर ज्ञानी मनुष्य मृत्यु को नये रूप में कार्य संपन्न करने का अवसर देने वाला देवदूत समझकर उसका कभी दुःख नहीं मानते और इसीलिए वे मृत्यु को यत्किंचित् क्षुद्र वस्तु समझते हैं।


अपने सुझाव लिखे: