गायत्री द्वारा कुण्डलिनी जागरण


शरीर में अनेक साधारण और अनेक असाधारण अंग हैं। असाधारण अंग जिन्हें ‘मर्म स्थान’ कहते हैं, केवल इसलिए मर्म स्थान नहीं कहे जाते कि वे बहुत सुकोमल एवं उपयोगी होते हैं, वरन् इसलिए भी कहे जाते हैं कि इनके भीतर गुप्त आध्यात्मिक शक्तियों के महत्त्वपूर्ण केन्द्र होते हैं। इन केन्द्रों में वे बीज सुरक्षित रखे रहते हैं, जिनका उत्कर्ष, जागरण हो जाये तो मनुष्य कुछ से कुछ बन सकता है। उसमें आत्मिक शक्तियों के स्रोत उमड़ सकते हैं और उस उभार के फलस्वरूप वह ऐसी अलौकिक शक्तियों का भण्डार बन सकता है जो साधारण लोगों के लिए अलौकिक आश्चर्य से कम प्रतीत नहीं होती।

ऐसे मर्मस्थलों में मेरुदण्ड या रीढ़ का प्रमुख स्थान है। यह शरीर की आधारशिला है। यह मेरुदण्ड छोटे- छोटे तैंतीस अस्थि खण्डों से मिलकर बना है। इस प्रत्येक खण्ड में तत्वदर्शियों को ऐसी विशेष शक्तियाँ परिलक्षित होती हैं, जिनका सम्बन्ध दैवी शक्तियों से है। देवताओं में जिन शक्तियों का केन्द्र होता है, वे शक्तियाँ भिन्न- भिन्न रूप में मेरुदण्ड के इन अस्थि खण्डों में पाई जाती हैं, इसलिए यह निष्कर्ष निकाला गया है कि मेरुदण्ड तैंतीस देवताओं का प्रतिनिधित्व करता है। आठ वसु, बारह आदित्य, ग्यारह रुद्र, इन्द्र और प्रजापति इन तैंतीसों की शक्तियाँ उसमें बीज रूप से उपस्थित रहती हैं।

इस पोले मेरुदण्ड में शरीर विज्ञान के अनुसार नाडिय़ाँ हैं और ये विविध कार्यों में नियोजित रहती हैं। अध्यात्म विज्ञान के अनुसार उनमें तीन प्रमुख नाडिय़ाँ हैं- १. इड़ा, २. पिङ्गला, ३. सुषुम्ना। यह तीन नाडिय़ाँ मेरुदण्ड को चीरने पर प्रत्यक्ष रूप से आँखों द्वारा नहीं देखी जा सकतीं, इनका सम्बन्ध सूक्ष्म जगत् से है। यह एक प्रकार का विद्युत् प्रवाह है। जैसे बिजली से चलने वाले यन्त्रों में नेगेटिव और पोजेटिव, ऋण और धन धाराएँ दौड़ती हैं और उन दोनों का जहाँ मिलन होता है, वहीं शक्ति पैदा हो जाती है, इसी प्रकार इड़ा को नेगेटिव, पिङ्गला को पोजेटिव कह सकते हैं। इड़ा को चन्द्र नाड़ी और पिङ्गला को सूर्य नाड़ी भी कहते हैं। मोटे शब्दों में इन्हें ठण्डी- गरम धाराएँ कहा जा सकता है। दोनों के मिलने से जो तीसरी शक्ति उत्पन्न होती है, उसे सुषुम्ना कहते हैं। प्रयाग में गंगा और यमुना मिलती हैं। इस मिलन से एक तीसरी सूक्ष्म सरिता और विनिर्मित होती है, जिसे सरस्वती कहते हैं। इस प्रकार तीन नदियों से त्रिवेणी बन जाती है। मेरुदण्ड के अन्तर्गत भी ऐसी आध्यात्मिक त्रिवेणी है। इड़ा, पिङ्गला की दो धाराएँ मिलकर सुषुम्ना की सृष्टि करती हैं और एक पूर्ण त्रिवर्ग बन जाता है।

यह त्रिवेणी ऊपर मस्तिष्क के मध्य केन्द्र से, ब्रह्मरन्ध्र से, सहस्रार कमल से सम्बन्धित और नीचे मेरुदण्ड का जहाँ नुकीला अन्त है, वहाँ लिङ्गं मूल और गुदा के बीच ‘सीवन’ स्थान की सीध में पहुँचकर रुक जाती है, यही इस त्रिवेणी का आदि- अन्त है।

सुषुम्ना नाड़ी के भीतर एक और त्रिवर्ग है। उसके अन्तर्गत भी तीन अत्यन्त सूक्ष्म धाराएँ प्रवाहित होती हैं, जिन्हें वज्रा, चित्रणी और ब्रह्मनाड़ी कहते हैं। जैसे केले के तने को काटने पर उसमें एक के भीतर एक परत दिखाई पड़ती है, वैसे ही सुषुम्ना के भीतर वज्रा है, वज्रा के भीतर चित्रणी और चित्रणी के भीतर ब्रह्मनाड़ी है। यह ब्रह्मनाड़ी सब नाडिय़ों का मर्मस्थल, केन्द्र एवं शक्तिसार है। इस मर्म की सुरक्षा के लिए ही उस पर इतने परत चढ़े हैं।

यह ब्रह्मनाड़ी मस्तिष्क के केन्द्र में- ब्रह्मरन्ध्र में पहुँचकर हजारों भागों में चारों ओर फैल जाती है, इसी से उस स्थान को सहस्रदल कमल कहते हैं। विष्णुजी की शय्या, शेषजी के सहस्र फनों पर होने का अलंकार भी इस सहस्रदल कमल से लिया गया है। भगवान् बुद्ध आदि अवतारी पुरुषों के मस्तक पर एक विशेष प्रकार के गुंजलकदार बालों का अस्तित्व हम उनकी मूर्तियों अथवा चित्रों में देखते हैं। यह इस प्रकार के बाल नहीं हैं, वरन् सहस्रदल कमल का कलात्मक चित्र है। यह सहस्रदल सूक्ष्म लोकों में, विश्वव्यापी शक्तियों से सम्बन्धित है। रेडियो- ट्रान्समीटर से ध्वनि विस्तारक तन्तु फैलाये जाते हैं जिन्हें ‘एरियल’ कहते हैं। तन्तुओं के द्वारा सूक्ष्म आकाश में ध्वनि को फेंका जाता है और बढ़ती हुई तरंगों को पकड़ा जाता है। मस्तिष्क का ‘एरियल’ सहस्रार कमल है। उसके द्वारा परमात्मसत्ता की अनन्त शक्तियों को सूक्ष्म लोक में से पकड़ा जाता है। जैसे भूखा अजगर जब जाग्रत् होकर लम्बी साँसें खींचता है, तो आकाश में उड़ते पक्षियों को अपनी तीव्र शक्तियों से जकड़ लेता है और वे मन्त्रमुग्ध की तरह खिंचते हुए अजगर के मुँह में चले जाते हैं, उसी प्रकार जाग्रत् हुआ सहस्रमुखी शेषनाग- सहस्रार कमल अनन्त प्रकार की सिद्धियों को लोक- लोकान्तरों से खींच लेता है। जैसे कोई अजगर जब क्रुद्ध होकर विषैली फुँफकार मारता है, तो एक सीमा तक वायुमण्डल को विषैला कर देता है, उसी प्रकार जाग्रत् हुए सहस्रार कमल द्वारा शक्तिशाली भावना तरंगें प्रवाहित करके साधारण जीव- जन्तुओं एवं मनुष्यों को ही नहीं, वरन् सूक्ष्म लोकों की आत्माओं को भी प्रभावित और आकर्षित किया जा सकता है। शक्तिशाली ट्रान्समीटर द्वारा किया हुआ अमेरिका का ब्राडकास्ट भारत में सुना जाता है। शक्तिशाली सहस्रार द्वारा निक्षेपित भावना प्रवाह भी लोक- लोकान्तरों के सूक्ष्म तत्त्वों को हिला देता है।

अब मेरुदण्ड के नीचे के भाग को, मूल को लीजिये। सुषुम्ना के भीतर रहने वाली तीन नाडिय़ों में सबसे सूक्ष्म ब्रह्मनाड़ी मेरुदण्ड के अन्तिम भाग के समीप एक काले वर्ण के षट्कोण वाले परमाणु से लिपटकर बँध जाती है। छप्पर को मजबूत बाँधने के लिए दीवार में खूँटे गाड़ते हैं और उन खूँटों में छप्पर से सम्बन्धित रस्सी को बाँध देते हैं। इसी प्रकार उस षट्कोण कृष्ण वर्ण परमाणु से ब्रह्मनाड़ी को बाँधकर इस शरीर से प्राणों के छप्पर को जकड़ देने की व्यवस्था की गयी है।

कूर्म से ब्रह्मनाड़ी के गुन्थन स्थल को आध्यात्मिक भाषा में ‘कुण्डलिनी’ कहते हैं। जैसे काले रंग का होने से आदमी का नाम कलुआ भी पड़ जाता है, वैसे ही कुण्डलाकार बनी हुई इस आकृति को ‘कुण्डलिनी’ कहा जाता है। यह साढ़े तीन लपेटे उस कू र्म में लगाये हुए है और मुँह नीचे को है। विवाह संस्कारों में इसी की नकल करके ‘‘भाँवर या फेरे’’ होते हैं। साढ़े तीन (सुविधा की दृष्टि से चार) परिक्रमा किये जाने और मुँह नीचा किये जाने का विधान इस कुण्डलिनी के आधार पर ही रखा गया है, क्योंकि भावी जीवन- निर्माण की व्यवस्थित आधारशिला, पति- पत्नी का कूर्म और ब्रह्मनाड़ी मिलन वैसा ही महत्त्वपूर्ण है जैसा कि शरीर और प्राण को जोडऩे में कुण्डलिनी का महत्त्व है।

इस कुण्डलिनी की महिमा, शक्ति और उपयोगिता इतनी अधिक है कि उसको भली प्रकार समझने में मनुष्य की बुद्धि लडख़ड़ा जाती है। भौतिक विज्ञान के अन्वेषकों के लिये आज ‘परमाणु’ एक पहेली बना हुआ है। उसके तोडऩे की एक क्रिया मालूम हो जाने का चमत्कार दुनिया ने प्रलयंकर परमाणु बम के रूप में देख लिया। अभी उसके अनेकों विध्वंसक और रचनात्मक पहलू बाकी हैं। सर आर्थर का कथन है कि ‘‘यदि परमाणु शक्ति का पूरा ज्ञान और उपयोग मनुष्य को मालूम हो गया, तो उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं रहेगा। यह सूर्य के टुकड़े- टुकड़े करके उसेगर्द में मिला सकेगा और जो चाहेगा, वह वस्तु या प्राणी मनमाने ढंग से पैदा कर लिया करेगा। ऐसे- ऐसे यन्त्र उसके पास होंगे, जिनसे सारी पृथ्वी एक मुहल्ले में रहने वाली आबादी की तरह हो जायेगी। कोई व्यक्ति चाहे कहीं क्षण भर में आ जा सकेगा और चाहे जिससे जो वस्तु ले दे सकेगा तथा देश- देशान्तरों में स्थित लोगों से ऐसे ही घुल- मिलकर वार्तालाप कर सकेगा, जैसे दो मित्र आपस में बैठे- बैठे गप्पें लड़ाते रहते हैं।’’ जड़ जगत् के एक परमाणु की शक्ति का आकलन करने पर उसकी महत्ता को देखकर आश्चर्य की सीमा नहीं रहती। फिर चैतन्य जगत् का एक स्फुल्लिंग जो जड़ परमाणु की अपेक्षा अनन्त गुना शक्तिशाली है, कितना अद्भुत होगा, इसकी तो कल्पना कर सकना भी कठिन है।

योगियों में अनेक प्रकार की अद्भुत शक्तियाँ होने के वर्णन और प्रमाण हमंक मिलते हैं। योग की ऋद्धि- सिद्धियों की अनेक गाथाएँ सुनी जाती हैं। उनसे आश्चर्य होता है और विश्वास नहीं होता कि यह कहाँ तक ठीक है! पर जो लोग विज्ञान से परिचित हैं और जड़ परमाणु तथा चैतन्य स्फुल्लिंग को जानते हैं, उनके लिए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। जिस प्रकार आज परमाणु की शोध में प्रत्येक देश के वैज्ञानिक व्यस्त हैं, उसी प्रकार पूर्वकाल में आध्यात्मिक विज्ञानवेत्ताओं ने, तत्त्वदर्शी ऋषियों ने मानव शरीर के अन्तर्गत एक बीज परमाणु की अत्यधिक शोध की थी। दो परमाणुओं को तोडऩे, मिलाने या स्थानान्तरित करने का सर्वोच्च स्थान कुण्डलिनी केन्द्र में होता है, क्योंकि अन्य सब जगह के चैतन्य परमाणु गोल और चिकने होते हैं, पर कुण्डलिनी में यह मिथुन लिपटा हुआ है। जैसे यूरेनियम और प्लेटोनियम धातु में परमाणुओं का गुन्थन कुछ ऐसे टेढ़े- तिरछे ढंग से होता है कि उनका तोड़ा जाना अन्य पदार्थों के परमाणुओं की अपेक्षा अधिक सरल है, उसी प्रकार कुण्डलिनी स्थित स्फुल्लिंग परमाणुओं की गतिविधि को इच्छानुकूल संचालित करना अधिक सुगम है। इसलिए प्राचीन काल में कुण्डलिनी जागरण की उतनी ही तत्परता से शोध हुई थी, जितनी कि आजकल परमाणु विज्ञान के बारे में हो रही है। इन शोधों के परीक्षणों और प्रयोगों के फलस्वरूप उन्हें ऐसे कितने ही रहस्य भी करतलगत हुए थे, जिन्हें आज ‘योग के चमत्कार’ के नाम से पुकारते हैं।

मैडम ब्लेवेटस्की ने कुण्डलिनी शक्ति के बारे में काफी खोजबीन की है। वे लिखती हैं- ‘‘कुण्डलिनी विश्वव्यापी सूक्ष्म विद्युत् शक्ति है, जो स्थूल बिजली की अपेक्षा कहीं अधिक शक्तिशालिनी है। इसकी चाल सर्प की चाल की तरह टेढ़ी है, इससे इसे सर्पाकार कहते हैं। प्रकाश एक लाख पचासी हजार मील प्रति सेकण्ड चलता है, पर कुण्डलिनी की गति एक सेकण्ड में ३४५००० मील है।’’ पाश्चात्य वैज्ञानिक इसे ‘‘स्प्रिट- फायर’’ ‘‘सरपेण्टलपावर’’ कहते हैं। इस सम्बन्ध में सर जान बुडरफ ने भी बहुत विस्तृत विवेचन किया है।

कुण्डलिनी को गुप्त शक्तियों की तिजोरी कहा जा सकता है। बहुमूल्य रत्नों को रखने के लिये किसी अज्ञात स्थान में गुप्त परिस्थितियों में तिजोरी रखी जाती है और उसमें कई ताले लगा दिये जाते हैं, ताकि घर या बाहर के अनधिकारी लोग उस खजाने में रखी हुई सम्पत्ति को न ले सकें। परमात्मा ने हमें शक्तियों का अक्षय भण्डार देकर उसमें छ: ताले लगा दिये। ताले इसलिये लगा दिये हैं कि वे जब पात्रता आ जाये, धन के उत्तरदायित्व को ठीक प्रकार समझने लगें, तभी वह सब प्राप्त हो सके। उन छहों तालों की ताली मनुष्य को ही सौंप दी गयी है, ताकि वह आवश्यकता के समय तालों को खोलकर उचित लाभ उठा सके|



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