गायत्री ध्यान

माता और बालक परस्पर जैसे अत्यन्त आत्मीयता और अभिन्न ममता के साथ सुसम्बद्ध रहते हैं हिल- मिलकर प्रेम का आदान- प्रदान करते हैं वैसा ही साधक का भी ध्यान होना चाहिए। ‘‘ हम एक वर्ष के अबोध बालक के रूप में माता की गोदी में पड़े हैं और उसका अमृत सदृश दूध पी रहे हैं। माता बड़े प्यार से अपनी छाती खोल कर उल्लासपूर्वक अपना दूध हमें पिला रही है। वह दूध रक्त बनकर हमारी नस- नाड़ियों में घूम रहा है और अपने सात्विक तत्वों से हमारे अंग- प्रत्यंगों को परिपूर्ण कर रहा है।’’ यह ध्यान बहुत ही सुखद है। छोटा बच्चा अपने नन्हे- नन्हे हाथ पसार कर कभी माता के बाल पकड़ता है कभी नाक- कान आदि में उँगलियाँ डालता है कभी अन्य प्रकार अटपटी क्रियाऐं माता के साथ करता है वैसा ही कुछ अपने द्वारा किया जा रहा है ऐसी भावना करनी चाहिए। माता भी जब वात्सल्य प्रेम से ओत- प्रोत होती है, तब बच्चे को छाती से लगाती है, उसके सिर पर हाथ फिराती है, पीठ खुजलाती है, थपकी देती है, पुचकारती है, उछालती है तथा गुदगुदाती है, हँसती और हँसाती है वैसा ही क्रियाएँ गायत्री माता के द्वारा अपने साथ हो रही है यह ध्यान करना चाहिए। इस समस्त विश्व में माता और पुत्र केवल मात्र दो ही हैं और कहीं कुछ नहीं है। कोई समस्या ,, चिन्ता, भय, लोभ आदि उत्पन्न करने वाला कोई कारण और पदार्थ इस संसार में नहीं केवल माता और पुत्र दो ही इस शून्य नील आकाश में अवस्थित होकर अनन्त प्रेम का आदान- प्रदान करते हुए कृत- कृत्य हो रहे हैं। ’’

भावना की अभिवृद्धि

जप के समय आरम्भिक साधक के लिए यही ध्यान सर्वोत्तम है। इससे मन को एक सुन्दर भावना में लगे रहने का अवसर मिलता है और उसकी भाग- दौड़ बन्द हो जाती है। प्रेम- भावना की अभिवृद्धि में भी यह ध्यान बहुत सहायक होता है। मीरा, शबरी, चैतन्य महाप्रभु, सूरदास, रामकृष्ण परमहंस आदि सभी भक्तों ने अपनी प्रेम भावना के बल पर भगवान को प्राप्त किया था। प्रेम ही वह अमृत है जिसके द्वारा सींचे जाने पर आत्मा की सच्चे अर्थों में परिपुष्टि होती है और वह भगवान को अपने में और अपने को भगवान में प्रतिष्ठित कर सकने में समर्थ बनती है। यह ध्यान इस आवश्यकता की पूर्ति करता है।
उपरोक्त ध्यान गायत्री उपासना की प्रथम भूमिका में आवश्यक है। भजन के साथ भाव की मात्रा भी पर्याप्त होनी चाहिए। इस ध्यान को कल्पना न समझा जाय वरन् साधक अपने को वस्तुतः उसी स्थिति में अनुभव करे और माता के प्रति अनन्य प्रेम- भाव के साथ तन्मयता अनुभव करे। इस अनुभूति की प्रगटता में अलौकिक आनन्द का रसास्वादन होता है और मन निरन्तर इसी में लगे रहने की इच्छा करता है। इस प्रकार मन को वश में करने और एक ही लक्ष में लगे रहने की एक बड़ी आवश्यकता सहज ही पूरी हो जाती है।

आगे की अन्य भूमिकाएँ

साधना की दूसरी भूमिका तब प्रारम्भ होती है जब मन की भाग- दौड़ बन्द हो जाती है और चित्त जप के साथ ध्यान में संलग्न रहने लगता है। इस स्थिति को प्राप्त कर लेने पर चित्त को एक सीमित केन्द्र पर एकाग्र करने की ओर कदम बढ़ाना पड़ता है। उपरोक्त ध्यान के स्थान पर दूसरी भूमिका में साधक सूर्यमंडल के प्रकाश तेज में गायत्री माता के सुन्दर मुख की झाँकी करता है। उसे समस्त विश्व में केवल मात्र एक पीतवर्ण सूर्य ही दीखता है और उसके मध्य में गायत्री माता का मुख हँसता मुस्कराता हुआ दृष्टिगोचर होता है। साधक भावनापूर्वक उस मुख- मण्डल को ध्यानावस्था में देखता है उसे माता के अधरों से, नेत्रों से, कपोलों की रेखाओं से एक अत्यन्त मधुर स्नेह, वात्सल्य, आश्वासन, सान्त्वना एवं आत्मीयता की झाँकी होती है। वह उस झाँकी को आनन्दविभोर होकर देखता रहता है और सुधि- बुधि भुलाकर चन्द्र- चकोर की भाँति उसी में तन्मय होती है।
 
इस दूसरी भूमिका की साधना में ध्यान की सीमा सीमित हो गई ।। पहली भूमिका में माता- पुत्र दोनों का क्रीड़ा विनोद काफी विस्तृत था। मन को भागने- दौड़ने के लिये उस ध्यान में बहुत बड़ा क्षेत्र पड़ा था। दूसरी भूमिका में वह संकुचित हो गया। सूर्य मंडल के मध्य माता की भावपूर्ण मुखाकृति पहले ध्यान की अपेक्षा काफी सीमित है। मन को एकाग्र करने की परिधि को आत्मिक विकास के साथ- साथ सीमित ही करते जाना होता है।
 
तीसरी सर्वोच्च भूमिका में गायत्री माता के दाहिने नेत्र की पुतली ही ध्यान का केन्द्र बिन्दु बनती है। पुतली के बीच में जो काला मध्य बिन्दु है जिसे ‘तिल’ कहते हैं उसका ज्योति स्रोत के रूप में ध्यान किया जाता है ।। उस ज्योति में साधक अपनी आत्मा को उसी प्रकार होमता है जैसे जलती हुई अग्नि में लकड़ी को डालने से उसे भी अग्नि की समरूपता मिलती है। माता की ज्योति में अपने आपका आत्म- समर्पण करने से ‘लय योग’ की सिद्धि होती है। उसी स्थिति में अद्वैत अनुभव होता है। आत्मा और परमात्मा एक हुये परिलक्षित होते हैं।
यह सार्वभौम एवं सर्वजनीन प्रक्रिया है।
 
आस्तिक- नास्तिक सभी इसे अपनाकर समान रूप से अपना मनोबल बढ़ा सकते हैं। चित्त की चंचलता का समाधान, एकाग्रता का अभिवर्धन जिस उपाय से बन पड़े उसे ध्यान कहा जा सकता है। अन्तःक्षेत्र में घुसी हुई पशु- प्रवृत्तियों के स्थान पर दैवी- तत्वों की स्थापना के लिए जो प्रयत्न कि ये जायें उन्हें धारणा वर्ग का कहा जायेगा। इसके लिए किसी पुष्प को भी माध्यम बनाया जा सकता है। देवताओं के स्थान पर किन्हीं महामानवों के व्यक्तित्व एवं चरित्र को ध्यान धारणा के लिए चुना जा सकता है।



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