दैनिक उपासना की सरल किन्तु महान् प्रक्रिया


गायत्री उपासना कभी भी, किसी भी स्थिति में की जा सकती है। हर स्थिति में यह लाभदायी है, परन्तु विधिपूर्वक भावना से जुड़े न्यूनतम कर्मकाण्डों के साथ की गयी उपासना अति फलदायी मानी गयी है। तीन माला गायत्री मंत्र का जप आवश्यक माना गया है। शौच-स्नान से निवृत्त होकर नियत स्थान, नियत समय पर, सुखासन में बैठकर नित्य गायत्री उपासना की जानी चाहिए। उपासना का विधि-विधान इस प्रकार है-

पञ्चकर्म - शरीर व मन को पवित्र बनाने के लिए पाँच कृत्य करने होते हैं।

    पवित्रीकरण- बाएँ हाथ में जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढँक लें एवं मंत्रोच्चारण के बाद जल को सिर तथा शरीर पर छिड़क लें।

                                             ॐ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थांगतोऽपि वा।
                                             यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥
                                             ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु।


    आचमन- वाणी, मन व अंतःकरण की शुद्धि के लिए चम्मच से तीन बार जल का आचमन करें। हर मंत्र के साथ एक आचमन किया जाए।

                                            ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।
                                            ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा।
                                            ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा।


    शिखा वंदन- शिखा के स्थान को स्पर्श करते हुए भावना करें कि गायत्री के इस प्रतीक के माध्यम से सदा सद्विचार ही यहाँ स्थापित रहेंगे। निम्न मन्त्र
                      का उच्चारण करें।

                                            ॐ चिद्रूपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते।
                                               तिष्ठ देवि शिखामध्ये, तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे॥


    प्राणायाम- श्वास को धीमी गति से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के क्रम में आता है। श्वास खींचने के साथ भावना करें कि
                    प्राण शक्ति, श्रेष्ठता श्वास के द्वारा अंदर खींची जा रही है, छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण, दुष्प्रवृत्तियाँ, बुरे विचार प्रश्वास
                    के  साथ बाहर निकल रहे हैं। प्राणायाम निम्न मन्त्र के उच्चारण के साथ किया जाए।

        ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम्। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
        ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं, ब्रह्म भूर्भुवः स्वः ॐ।


    न्यास- इसका प्रयोजन है-शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश तथा अंतः की चेतना को जगाना ताकि देव-पूजन जैसा श्रेष्ठ कृत्य
               किया जा सके। बाएँ हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की पाँचों उँगलियों को उनमें भिगोकर बताए गए स्थान को मंत्रोच्चार के साथ
               स्पर्श करें।

                                           ॐ वाङ् मे आस्येऽस्तु । (मुख को)
                                           ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु । (नासिका के दोनों छिद्रों को)
                                           ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु । (दोनों नेत्रों को)
                                           ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु । (दोनों कानों को)
                                           ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु । (दोनों भुजाओं को)
                                           ॐ ऊर्वोर्मे ओजोऽस्तु । (दोनों जंघाओं को)
                                           ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि, तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। (समस्त शरीर पर)

देवपूजन- गायत्री उपासना का आधार केन्द्र महाप्रज्ञा-ऋतम्भरा गायत्री है। उनका प्रतीक चित्र सुसज्जित पूजा की वेदी पर स्थापित कर उनका निम्न मन्त्र
              के माध्यम से आवाहन करें।

    गायत्री आवाहन: - भावना करें कि साधक की प्रार्थना के अनुरूप माँ गायत्री की शक्ति वहाँ अवतरित हो, स्थापित हो रही है।

                                            ॐ आयातु वरदे देवि त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि।
                                               गायत्रिच्छन्दसां मातः! ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते॥
                                            ॐ श्री गायत्र्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि, ततो नमस्कारं करोमि।


       ॐ स्तुता मया वरदा वेदमाता, प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम् । आयुः प्राणं प्रजां पशुं, कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम् । मह्यं दत्वा व्रजत ब्रह्मलोकम् ।
         - अथर्व० १९.७१.१

    गुरु आवाहन - गुरु परमात्मा की दिव्य चेतना का अंश है, जो साधक का मार्गदर्शन करता है। सद्गुरु के रूप में पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी
                         का अभिवंदन करते हुए उपासना की सफलता हेतु गुरु आवाहन निम्न मंत्रोच्चारण के साथ करें।

                                            ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः। गुरुरेव परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
                                                 अखण्डमंडलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम्। तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
                                            ॐ श्रीगुरवे नमः, आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।


    पंचोपचार पूजन - माँ गायत्री व गुरु सत्ता के आवाहन व नमन के पश्चात् देवपूजन में घनिष्ठता स्थापित करने हेतु पंचोपचार द्वारा पूजन किया जाता
                             है। इन्हें विधिवत् संपन्न करें। जल, अक्षत, पुष्प, धूप-दीप तथा नैवेद्य प्रतीक के रूप में आराध्य के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं।
                             एक-एक करके छोटी तश्तरी में इन पाँचों को समर्पित करते चलें। जल का अर्थ है-नम्रता-सहृदयता। अक्षत का अर्थ है- समयदान
                             अंशदान। पुष्प का अर्थ है-प्रसन्नता-आंतरिक उल्लास। धूप-दीप का अर्थ है-सुगंध व प्रकाश का वितरण, पुण्य-परमार्थ तथा नैवेद्य
                             का अर्थ है - स्वभाव व व्यवहार में मधुरता-शालीनता का समावेश।

जप-  गायत्री मंत्र का जप न्यूनतम तीन माला अर्थात् घड़ी से प्रायः पंद्रह मिनट नियमित रूप से किया जाए। अधिक बन पड़े, तो अधिक उत्तम। होठ
         हिलते रहें, किन्तु आवाज इतनी मंद हो कि पास बैठे व्यक्ति भी सुन न सकें। जप प्रक्रिया कषाय-कल्मषों-कुसंस्कारों को धोने के लिए की जाती है।

                                           ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।

इस प्रकार मंत्र का उच्चारण करते हुए माला की जाय एवं भावना की जाय कि हम निरन्तर पवित्र हो रहे हैं। दुर्बुद्धि की जगह सद्बुद्धि की स्थापना हो रही है।

भावार्थ :  उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा
              हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।

ध्यान-  जप तो अंग-अवयव करते हैं, मन को ध्यान में नियोजित करना होता है। साकार ध्यान में गायत्री माता के अंचल की छाया में बैठने तथा उनका
           दुलार भरा प्यार अनवरत रूप से प्राप्त होने की भावना की जाती है। निराकार ध्यान में गायत्री के देवता सविता की प्रभातकालीन स्वर्णिम किरणों
           को शरीर पर बरसने व शरीर में श्रद्धा-प्रज्ञा-निष्ठा रूपी अनुदान उतरने की भावना की जाती है, जप और ध्यान के समन्वय से ही चित्त एकाग्र होता
           है और आत्मसत्ता पर उस क्रिया का महत्त्वपूर्ण प्रभाव भी पड़ता है।

सूर्यार्घ्यदान- विसर्जन-जप समाप्ति के पश्चात् पूजा वेदी पर रखे छोटे कलश का जल सूर्य की दिशा में अर्घ्य रूप में निम्र मंत्र के उच्चारण के साथ
                   चढ़ाया जाता है।

                                          ॐ सूर्यदेव ! सहस्रांशो, तेजोराशे जगत्पते। अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर॥
                                          ॐ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः॥


भावना यह करें कि जल आत्मसत्ता का प्रतीक है एवं सूर्य विराट् ब्रह्म का तथा हमारी सत्ता-सम्पदा समष्टि के लिए समर्पित-विसर्जित हो रही है।

इतना सब करने के बाद पूजा स्थल पर देवताओं को करबद्ध नतमस्तक हो नमस्कार किया जाए व सब वस्तुओं को समेटकर यथास्थान रख दिया जाए। जप के लिए माला तुलसी या चंदन की ही लेनी चाहिए। सूर्योदय से दो घण्टे पूर्व से सूर्यास्त के एक घंटे बाद तक कभी भी गायत्री उपासना की जा सकती है। मौन-मानसिक जप चौबीस घण्टे किया जा सकता है। माला जपते समय तर्जनी उंगली का उपयोग न करें तथा सुमेरु का उल्लंघन न करें।




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