पृथ्वी पूजनम्हम जहाँ से अन्न, जल, वस्त्र, ज्ञान तथा अनेक सुविधा- साधन प्राप्त करते हैं, वह मातृभूमि हमारी सबसे बड़ी आराध्य है ।। हमारे मन में माता के प्रति जैसी अगाध श्रद्धा होती है, वैसी ही मातृभूमि के प्रति भी रहनी चाहिए और मातृ ऋण से उऋण होने के लिए अवसर ढूँढ़ते रहना चाहिए ।। भावना करें कि धरती माता के पूजन के साथ उसके पुत्र होने के नाते माँ के दिव्य संस्कार हमें प्राप्त हो रहे हैं ।। माँ विशाल है, सक्षम है ।। हमें भी क्षेत्र, वर्ग आदि की संकीर्णता से हटाकर विशालता, सहनशीलता, उदारता जैसे दिव्य संस्कार प्रदान कर रही है ।।
दाहिने हाथ में अक्षत (चावल), पुष्प, जल लें, बायाँ हाथ नीचे लगाएँ, मन्त्र बोलें और पूजा वस्तुओं को पात्र में छोड़ दें ।। धरती माँ को हाथ से स्पर्श करके नमस्कार करें ।।
ॐ पृथ्वि ! त्वया धृता लोका, देवि ! त्वं विष्णुना धृता ।। त्वं च धारय मां देवि ! पवित्रं कुरु चासनम ॥ - सं० प्र०
देवावाहनम् -
गायत्री- वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता-सद्ज्ञान, सद्भाव की अधिष्ठात्री सृष्टि की आदि कारण मातेश्वरी ।
ॐ आयातु वरदे देवि ! त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि ।
गायत्रिच्छन्दसां मातः, ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते॥४॥ - सं० प्र०
ॐ श्री गायत्र्यै नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि । ततो नमस्कारं करोमि ।
ॐ स्तुता मया वरदा वेदमाता, प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम् । आयुः प्राणं प्रजां पशुं, कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम् । मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम् ।
- अथर्व० १९.७१.१
गुरु- परमात्मा की दिव्य चेतना का वह अंश जो साधकों का मार्गदर्शन और सहयोग करने के लिए व्यक्त होता है ।
ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः ।
गुरुरेव परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः॥१॥
अखण्डमण्डलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः॥२॥ - गु० गी० ४३,४५
मातृवत् लालयित्री च, पितृवत् मार्गदर्शिका ।
नमोऽस्तु गुरुसत्तायै, श्रद्धा-प्रज्ञायुता च या॥३॥
ॐ श्री गुरवे नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ।
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