साधना- एकाग्रता और स्थिर चित्त से होनी चाहिए


साधना के लिए स्वस्थ और शान्त चित्त की आवश्यकता है। चित्त को एकाग्र करके, मन को सब ओर से हटाकर तन्मयता, श्रद्धा और भक्ति- भावना से की गई साधना सफल होती है। यदि यह सब बातें साधक के पास न हों, तो उसका प्रयत्न फलदायक नहीं होता। उद्विग्र, अशान्त, चिन्तित, उत्तेजित, भय एवं आशंका से ग्रस्त मन एक जगह नहीं ठहरता। वह क्षण- क्षण में इधर- उधर भागता है। कभी भय के चित्र सामने आते हैं, कभी दुर्दशा को पार करने के उपाय सोचने में मस्तिष्क दौड़ता है। ऐसी स्थिति में साधना कैसे हो सकती है? एकाग्रता न होने से न गायत्री के जप में मन लगता है, न ध्यान में। हाथ माला को फेरते हैं, मुख मन्त्रोच्चार करता है, चित्त कहीं का कहीं भागता फिरता है। यह स्थिति साधना के लिए उपयुक्त नहीं। जब तक मन सब ओर से हटकर, सब बातें भुलाकर एकाग्रता और तन्मयता के साथ भक्ति- भावना पूर्वक माता के चरणों में नहीं लग जाता, तब तक अपने में वह चुम्बक कैसे पैदा होगा जो गायत्री को अपनी ओर आकर्षित करे और अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में उसकी सहायता प्राप्त कर सके?

दूसरी कठिनाई है- श्रद्धा की कमी। कितने ही मनुष्यों की मनोभूमि बड़ी शुष्क एवं अश्रद्धालु होती है। उन्हें आध्यात्मिक साधनों पर सच्चे मन से विश्वास नहीं होता। किसी से बहुत प्रशंसा सुनी, तो परीक्षा करने का कौतूहल मन में उठता है कि देखें, यह बात कहाँ तक सच है? इस सच्चाई को जानने के लिये किसी कष्टसाध्य कार्य की पूर्ति को कसौटी बनाते हैं और उस कार्य की तुलना में वैसा परिश्रम नहीं करना चाहते। वे चाहते हैं कि १०- २० माला मन्त्र जपते ही उनका कष्टसाध्य मनोरथ आनन- फानन में पूरा हो जाए।

साधकों के लिये कुछ आवश्यक नियम

गायत्री साधना करने वालों के लिए कुछ आवश्यक जानकारियाँ नीचे दी जाती हैं—

- शरीर को शुद्ध करके साधना पर बैठना चाहिये। साधारणत: स्नान के द्वारा ही शुद्धि होती है, पर किसी विवशता, ऋतु- प्रतिकूलता या अस्वस्थता की दशा में हाथ- मुँह धोकर या गीले कपड़े से शरीर पोंछकर भी काम चलाया जा सकता है।

२- साधना के समय शरीर पर कम से कम वस्त्र रहने चाहिये। शीत की अधिकता हो तो कसे हुए कपड़े पहनने की अपेक्षा कम्बल आदि ओढक़र शीत- निवारण कर लेना उत्तम है।

३- साधना के लिए एकान्त खुली हवा की एक ऐसी जगह ढूँढऩी चाहिये, जहाँ का वातावरण शान्तिमय हो। खेत, बगीचा, जलाशय का किनारा, देव- मन्दिर साधना के लिए उपयुक्त होते हैं, पर जहाँ ऐसा स्थान मिलने की असुविधा हो, वहाँ घर का कोई स्वच्छ और शान्त भाग भी चुना जा सकता है।

- धुला हुआ वस्त्र पहनकर साधना करना उचित है।

५- पालथी मारकर सीधे- सादे ढंग से बैठना चाहिये। कष्टसाध्य आसन लगाकर बैठने से शरीर को कष्ट होता है और मन बार- बार उचटता है, इसलिये इस तरह बैठना चाहिये कि देर तक बैठे रहने में असुविधा न हो।

६- रीढ़ की हड्डी को सदा सीधा रखना चाहिये। कमर झुकाकर बैठने से मेरुदण्ड टेढ़ा हो जाता है और सुषुम्ना नाड़ी में प्राण का आवागमन होने में बाधा पड़ती है।

७- बिना बिछाये जमीन पर साधना के लिए न बैठना चाहिये। इससे साधना काल में उत्पन्न होने वाली सारी विद्युत् जमीन पर उतर जाती है। घास या पत्तों से बने हुए आसन सर्वश्रेष्ठ हैं। कुश का आसन, चटाई, रस्सियों से बने फर्श सबसे अच्छे हैं। इनके बाद सूती आसनों का नम्बर है। ऊन तथा चर्मों के आसन तान्त्रिक कर्मां में प्रयुक्त होते हैं।

८- माला तुलसी या चन्दन की लेनी चाहिये। रुद्राक्ष, लाल चन्दन, शंख आदि की माला गायत्री के तान्त्रिक प्रयोगों में प्रयुक्त होती हैं।

९- प्रात:काल २ घण्टे तडक़े से जप प्रारम्भ किया जा सकता है। सूर्य अस्त होने से एक घण्टे बाद तक जप समाप्त कर लेना चाहिये। एक घण्टा शाम का, २ घण्टे प्रात:काल के, कुल ३ घण्टों को छोडक़र रात्रि के अन्य भागों में गायत्री की दक्षिणमार्गी साधना नहीं करनी चाहिये। तान्त्रिक साधनाएँ अर्ध रात्रि के आस- पास की जाती हैं।

१०- साधना के लिए चार बातों का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिये— (अ) चित्त एकाग्र रहे, मन इधर- उधर न उछलता फिरे। यदि चित्त बहुत दौड़े, तो उसे माता की सुन्दर छवि के ध्यान में लगाना चाहिये। (ब) माता के प्रति अगाध श्रद्धा व विश्वास हो। अविश्वासी और शंका- शंकित मति वाले पूरा लाभ नहीं पा सकते। (स) दृढ़ता के साथ साधना पर अड़े रहना चाहिये। अनुत्साह, मन उचटना, नीरसता प्रतीत होना, जल्दी लाभ न मिलना, अस्वस्थता तथा अन्य सांसारिक कठिनाइयों का मार्ग में आना साधना के विघ्र हैं। इन विघ्रों से लड़ते हुए अपने मार्ग पर दृढ़तापूर्वक बढ़ते चलना चाहिये। (द) निरन्तरता साधना का आवश्यक नियम है। अत्यन्त कार्य होने या विषम स्थिति आ जाने पर भी किसी न किसी रूप में चलते फिरते ही सही, पर माता की उपासना अवश्य कर लेनी चाहिये। किसी भी दिन नागा या भूल नहीं करना चाहिये। समय को रोज- रोज नहीं बदलना चाहिये। कभी सबेरे, कभी दोपहर, कभी तीन बजे तो कभी दस बजे, ऐसी अनियमितता ठीक नहीं। इन चार नियमों के साथ की गई साधना बड़ी प्रभावशाली होती है।

११- कम से कम एक माला अर्थात् १०८ मन्त्र नित्य जपने चाहिये, इससे अधिक जितने बन पड़े, उतने उत्तम हैं।

१२- किसी अनुभवी तथा सदाचारी को साधना- गुरु नियत करके तब साधना करनी चाहिये। अपने लिए कौन- सी साधना उपयुक्त है, इसका निर्णय उसी से कराना चाहिये। रोगी अपने रोग को स्वयं समझने और अपने आप दवा तथा परहेज का निर्णय करने में समर्थ नहीं होता, उसे किसी वैद्य की सहायता लेनी पड़ती है। इसी प्रकार अपनी मनोभूमि के अनुकूल साधना बताने वाला, भूलों तथा कठिनाइयों का समाधान करने वाला साधना- गुरु होना अति आवश्यक है।

१३- प्रात:काल की साधना के लिए पूर्व की ओर मुँह करके बैठना चाहिये और शाम को पश्चिम की ओर मुँह करके। प्रकाश की ओर, सूर्य की ओर मुँह करना उचित है।

१४-
पूजा के लिए फूल न मिलने पर चावल या नारियल की गिरी को कद्दूकस पर कसकर उसके बारीक पत्रों को काम में लाना चाहिये। यदि किसी विधान में रंगीन पुष्पों की आवश्यकता हो, तो चावल या गिरी के पत्तों को केसर, हल्दी, गेरू, मेंहदी के देशी रंगों से रँगा जा सकता है। विदेशी अशुद्ध चीजों से बने रंग काम में नहीं लेने चाहिए।

१५- देर तक एक पालथी से, एक आसन में बैठे रहना कठिन होता है, इसलिए जब एक तरफ से बैठे- बैठे पैर थक जाएँ, तब उन्हें बदला जा सकता है। आसन बदलने में दोष नहीं।

१६- मल- मूत्र त्याग या किसी अनिवार्य कार्य के लिये साधना के बीच उठना पड़े, तो शुद्ध जल से हाथ- मुँह धोकर दुबारा बैठना चाहिये और विक्षेप के लिए एक माला अतिरिक्त जप प्रायश्चित्त स्वरूप करना चाहिये।

१७- यदि किसी दिन अनिवार्य कारण से साधना स्थगित करनी पड़े, तो दूसरे दिन एक माला अतिरिक्त जप दण्ड स्वरूप करना चाहिये।

१८- जन्म या मृत्यु का सूतक हो जाने पर शुद्धि होने तक माला आदि की सहायता से किया जाने वाला विधिवत् जप स्थगित रखना चाहिये। केवल मानसिक जप मन ही मन चालू रख सकते हैं। यदि इस प्रकार का अवसर सवालक्ष जप के अनुष्ठान काल में आ जाए, तो उतने दिनों अनुष्ठान स्थगित रखना चाहिए। सूतक निवृत्त होने पर उसी संख्या पर से जप आरम्भ किया जा सकता है, जहाँ से छोड़ा था। उस विक्षेप काल की शुद्धि के लिए एक हजार जप विशेष रूप से करना चाहिये।

१९- लम्बे सफर में होने, स्वयं रोगी हो जाने या तीव्र रोगी की सेवा में संलग्न रहने की दशा में स्नान आदि पवित्रताओं की सुविधा नहीं रहती। ऐसी दशा में मानसिक जप बिस्तर पर पड़े- पड़े, रास्ता चलते या किसी भी अपवित्र दशा में किया जा सकता है।

२०- साधक का आहार- विहार सात्त्विक होना चाहिये। आहार में सतोगुणी, सादा, सुपाच्य, ताजे तथा पवित्र हाथों से बनाये हुए पदार्थ होने चाहिये। अधिक मिर्च- मसाले, तले हुए पक्वान्न, मिष्ठान्न, बासी, दुर्गन्धित, मांस, नशीली, अभक्ष्य, उष्ण, दाहक, अनीति उपार्जित, गन्दे मनुष्यों द्वारा बनाये हुए, तिरस्कार पूर्वक दिये हुए भोजन से जितना बचा जा सके, उतना ही अच्छा है।

२१- व्यवहार जितना भी प्राकृतिक, धर्म- संगत, सरल एवं सात्त्विक रह सके, उतना ही उत्तम है। फैशनपरस्ती, रात्रि में अधिक जगना, दिन में सोना, सिनेमा, नाच- रंग अधिक देखना, पर निन्दा, छिद्रान्वेषण, कलह, दुराचार, ईष्र्या, निष्ठुरता, आलस्य, प्रमाद, मद, मत्सर से जितना बचा जा सके, बचने का प्रयत्न करना चाहिये।

२२- यों ब्रह्मचर्य तो सदा ही उत्तम है, पर गायत्री अनुष्ठान के ४० दिन में उसकी विशेष आवश्यकता है।

२३- अनुष्ठान के दिनों में कुछ विशेष नियमों का पालन करना पड़ता है, जो इस प्रकार हैं- (१) ठोड़ी के सिवाय सिर के बाल न कटाएँ, ठोड़ी के बाल अपने हाथों से ही बनायें। (२) चारपाई पर न सोयें, तख्त या जमीन पर सोना चाहिये। उन दिनों अधिक दूर नंगे पैरों न फिरें। चाम के जूते के स्थान पर खड़ाऊ आदि का उपयोग करना चाहिये। (४) इन दिनों एक समय आहार, एक समय फलाहार लेना चाहिये। (५) अपने शरीर और वस्त्रों से दूसरों का स्पर्श कम से कम होने दें।

२४- एकान्त में जपते समय माला खुले में जपनी चाहिये। जहाँ बहुत आदमियों की दृष्टि पड़ती हो, वहाँ कपड़े से ढक लेना चाहिये या गोमुखी में हाथ डाल लेना चाहिये।

२५- साधना के दौरान पूजा के बचे हुए अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, फूल, जल, दीपक की बत्ती, हवन की भस्म आदि को यों ही जहाँ- तहाँ ऐसी जगह नहीं फेंक देनी चाहिये, जहाँ वे पैरों तले कुचलती फिरे। उन्हें किसी तीर्थ, नदी, जलाशय, देव- मन्दिर, कपास, जौ, चावल का खेत आदि पवित्र स्थानों पर विसर्जित करना चाहिये। चावल चिडिय़ों के लिए डाल देना चाहिये। नैवेद्य आदि बालकों को बाँट देने चाहिये। जल को सूर्य के सम्मुख अघ्र्य देना चाहिये।

२६- वेदोक्त रीति की यौगिक दक्षिणमार्गी क्रियाओं में और तन्त्रोक्त वाममार्गी क्रियाओं में अन्तर है। योगमार्गी सरल विधियाँ इस पुस्तक में लिखी हुई हैं, उनमें कोई विशेष कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं है। शाप मोचन, कवच, कीलक, अर्गला, मुद्रा, अंग न्यास आदि कर्मकाण्ड तान्त्रिक साधनाओं के लिये हैं। इस पुस्तक के आधार पर साधना करने वालों को उसकी आवश्यकता नहीं है।

२७- प्रचलित शास्त्रीय मान्यता के अनुसार गायत्री का अधिकार द्विजों को है। द्विज का अर्थ होता है जिनका दूसरा जन्म हुआ है। गायत्री की दीक्षा लेने वालों को ही द्विज कहते हैं। हमारे यहाँ वर्ण व्यवस्था रही है जिसे गीता में गुण- कर्म के अनुसार निर्धारित करने का अनुशासन बतलाया गया है। जन्म से वर्ण निर्धारित करने पर उन्हें जाति कहा जाने लगा। वास्तव में शूद्र उन्हें कहा जाता था जो द्विजत्व का संस्कार स्वीकार नहीं करते थे। गुण- कर्म के आधार पर धीवर कन्या के गर्भ से उत्पन्न बालक महर्षि व्यास, इतरा का बेटा ऋषि ऐतरेय बनने जैसे अनेक उदाहरण पौराणिक इतिहास में मिलते हैं।

२८- वेद मन्त्रों का सस्वर उच्चारण करना उचित होता है, पर सब लोग यथाविधि सस्वर गायत्री का उच्चारण नहीं कर सकते। इसलिये जप इस प्रकार प्रकार करना चाहिए कि कण्ठ से ध्वनि होती रहे, होंठ हिलते रहें, पर पास बैठा हुआ व्यक्ति भी स्पष्ट रूप से मन्त्र को न सुन सके। इस प्रकार किया जप स्वर- बन्धनों से मुक्त होता है।

२९-
साधना की अनेक विधियाँ हैं। अनेक लोग अनेक प्रकार से करते हैं। अपनी साधना विधि दूसरों को बताई जाए तो कुछ न कुछ मीन- मेख निकाल कर सन्देह और भ्रम उत्पन्न कर देंगे, इसलिये अपनी साधना विधि हर किसी को नहीं बतानी चाहिये। यदि दूसरे मतभेद प्रकट करें, तो अपने साधना गुरु को ही सर्वोपरि मानना चाहिये। यदि कोई दोष की बात होगी, तो उसका पाप या उत्तरदायित्व उस साधना गुरु पर पड़ेगा। साधक तो निर्दोष और श्रद्धायुक्त होने से सच्ची साधना का ही फल पायेगा। वाल्मीकि जी उलटा राम नाम जप कर भी सिद्ध हो गये थे।

३०- गायत्री साधना माता की चरण- वन्दना के समान है, यह कभी निष्फल नहीं होती, उलटा परिणाम भी नहीं होता। भूल हो जाने पर अनिष्ट की कोई आशंका नहीं, इसलिये निर्भय और प्रसन्न चित्त से उपासना करनी चाहिये। अन्य मन्त्र अविधि पूर्वक जपे जाने पर अनिष्ट करते हैं, पर गायत्री में यह बात नहीं है। वह सर्वसुलभ, अत्यन्त सुगम और सब प्रकार सुसाध्य है। हाँ, तान्त्रिक विधि से की गयी उपासना पूर्ण विधि- विधान के साथ होनी चाहिये, उसमें अन्तर पडऩा हानिकारक है।

३१- जैसे मिठाई को अकेले- अकेले ही चुपचाप खा लेना और समीपवर्ती लोगों को उसे न चखाना बुरा है, वैसे ही गायत्री साधना को स्वयं तो करते रहना, पर अन्य प्रियजनों, मित्रों, कुटुम्बियों को उसके लिये प्रोत्साहित न करना, एक बहुत बड़ी बुराई तथा भूल है। इस बुराई से बचने के लिए हर साधक को चाहिये कि अधिक से अधिक लोगों को इस दिशा में प्रोत्साहित करें।

३२- कोई बात समझ में न आती हो या सन्देह हो तो ‘शांतिकुञ्ज हरिद्वार’ से उसका समाधान कराया जा सकता है।

३३- माला जपते समय सुमेरु (माला के आरम्भ का सबसे बड़ा दाना) का उल्लंघन नहीं करना चाहिये। एक माला पूरी करके उसे मस्तक तथा नेत्रों से लगाकर पीछे की तरफ उलटा ही वापस कर लेना चाहिये। इस प्रकार माला पूरी होने पर हर बार उलट कर ही नया आरम्भ करना चाहिये। अपनी पूजा- सामग्री ऐसी जगह रखनी चाहिये, जिसे अन्य लोग अधिक स्पर्श न करें।



अपने सुझाव लिखे: