उच्चस्तरीय साधना और उसकी सिद्धि

यों गायत्री नित्य उपासना करने योग्य है। त्रिकाल सन्ध्या में प्रात:, मध्याह्न, सायं तीन बार उसी की उपासना करने का नित्यकर्म शास्त्रों में आवश्यक बतलाया गया है। जब भी जितनी अधिक मात्रा में गायत्री का जप, पूजन, चिन्तन, मनन किया जा सके, उतना ही अच्छा है, क्योंकि ‘अधिकस्य अधिकं फलम्।’

परन्तु किसी विशेष प्रयोजन के लिए जब विशेष शक्ति का सञ्चय करना पड़ता है, तो उसके लिए विशेष क्रिया की जाती है। इस क्रिया को अनुष्ठान के नाम से पुकारते हैं। जब कभी परदेश के लिए यात्रा की जाती है, तो रास्ते के लिए कुछ भोजन सामग्री तथा खर्च के लिए रुपये साथ रख लेना आवश्यक होता है। यदि यह मार्गव्यय साथ न हो, तो यात्रा बड़ी कष्टसाध्य हो जाती है। अनुष्ठान एक प्रकार का मार्गव्यय है। इस साधना को करने से जो पूँजी जमा हो जाती है, उसे साथ लेकर किसी भी भौतिक या आध्यात्मिक कार्य में जुटा जाए, तो यात्रा बड़ी सरल हो जाती है।

सिंह जब हिरन पर झपटता है, बिल्ली जब चूहे पर छापा मारती है, बगुला जब मछली पर आक्रमण करता है, तो उसे एक क्षण स्तब्ध होकर, साँस रोककर, जरा पीछे हटकर अपने अन्दर की छिपी हुई शक्तियों को जाग्रत् और सतेज करना पड़ता है, तब वह अचानक अपने शिकार पर पूरी शक्ति के साथ टूट पड़ते हैं और मनोवाँछित लाभ प्राप्त करते हैं। ऊँची या लम्बी छलाँग भरने से पहले खिलाड़ी लोग कुछ क्षण रुकते, ठहरते और पीछे हटते हैं, तदुपरान्त छलाँग भरते हैं। कुश्ती लडऩे वाले पहलवान ऐसे ही पैंतरे बदलते हैं। बन्दूक चलाने वाले को भी घोड़ा दबाने से पहले यही करना पड़ता है। अनुष्ठान द्वारा यही कार्य आध्यात्मिक आधार पर होता है। किसी विपत्ति को छलाँग कर पार करना है या कोई सफलता प्राप्त करनी है, तो उस लक्ष्य पर पडऩे के लिए जो शक्ति सञ्चय आवश्यक है, वह अनुष्ठान द्वारा प्राप्त होती है।

बच्चा दिन भर माँ- माँ पुकारता रहता है, माता भी दिन भर बेटा, लल्ला कहकर उसको उत्तर देती रहती है, यह लाड़- दुलार यों ही दिन भर चलता रहता है। पर जब कोई विशेष आवश्यकता पड़ती है, कष्ट होता है, कठिनाई आती है, आशंका होती है या साहस की जरूरत पड़ती है, तो बालक विशेष बलपूर्वक, विशेष स्वर से माता को पुकारता है। इस विशेष पुकार को सुनकर माता अपने अन्य कामों को छोडक़र बालक के पास दौड़ आती है और उसकी सहायता करती है। अनुष्ठान साधक की ऐसी ही पुकार है, जिसमें विशेष बल एवं विशेष आकर्षण होता है, उस आकर्षण से गायत्री- शक्ति विशेष रूप से साधक के समीप एकत्रित हो जाती है।

जब सांसारिक प्रयत्न असफल हो रहे हों, आपत्ति का निवारण होने का मार्ग न सूझ पड़ता हो, चारों ओर अन्धकार छाया हुआ हो, भविष्य निराशाजनक दिखाई दे रहा हो, परिस्थितियाँ दिन- दिन बिगड़ती जाती हों, सीधा करते उलटा परिणाम निकलता हो, तो स्वभावत: मनुष्य के हाथ- पैर फूल जाते हैं। चिन्ताग्रस्त और उद्विग्र मनुष्य की बुद्धि ठीक काम नहीं करती। जाल में फँसे कबूतर की तरह वह जितना फडफ़ड़ाता है, उतना ही जाल में और फँसता जाता है। ऐसे अवसरों पर ‘हारे को हरिनाम’ बल होता है। गज, द्रौपदी, नरसी, प्रह्लाद आदि को उसी बल का आश्रय लेना पड़ा था।

 देखा गया है कि कई बार जब वह सांसारिक प्रयत्न विशेष कारगर नहीं होते, तो दैवी सहायता मिलने पर सारी स्थिति बदल जाती है और विपदाओं की रात्रि के घोर अन्धकार को चीरकर अचानक ऐसी बिजली कौंध जाती है, जिसके प्रकाश में पार होने का रास्ता मिल जाता है। अनुष्ठान ऐसी ही प्रक्रिया है। वह हारे हुए का चीत्कार है जिससे देवताओं का सिंहासन हिलता है। अनुष्ठान का विस्फोट हृदयाकाश में एक ऐसे प्रकाश के रूप में होता है, जिसके द्वारा विपत्तिग्रस्त को पार होने का रास्ता दिखाई दे जाता है।

सांसारिक कठिनाइयों में, मानसिक उलझनों में, आन्तरिक उद्वेगों में गायत्री अनुष्ठान से असाधारण सहायता मिलती है। यह ठीक है कि किसी को सोने का घड़ा भर कर अशर्फियाँ गायत्री नहीं दे जाती, पर यह भी ठीक है कि उसके प्रभाव से मनोभूमि में ऐसे मौलिक परिवर्तन होते हैं, जिनके कारण कठिनाई का उचित हल निकल आता है। उपासक में ऐसी बुद्धि, ऐसी प्रतिभा, ऐसी सूझ, ऐसी दूरदर्शिता पैदा हो जाती है, जिसके कारण वह ऐसा रास्ता प्राप्त कर लेता है, जो कठिनाई के निवारण में रामबाण की तरह फलप्रद सिद्ध होता है।

 भ्रान्त मस्तिष्क में कुछ असंगत, असम्भव और अनावश्यक विचारधाराएँ, कामनाएँ, मान्यताएँ घुस पड़ती हैं, जिनके कारण वह व्यक्ति अकारण दु:खी बना रहता है। गायत्री साधना से मस्तिष्क का ऐसा परिमार्जन हो जाता है, जिसमें कुछ समय पहले जो बातें अत्यन्त आवश्यक और महत्त्वपूर्ण लगती थीं, वे ही पीछे अनावश्यक और अनुपयुक्त लगने लगती हैं। वह उधर से मुँह मोड़ लेता है। इस प्रकार यह मानसिक परिवर्तन इतना आनन्दमय सिद्ध होता है, जितना कि पूर्वकल्पित कामनाओं के पूर्ण होने पर भी सुख न मिलता। अनुष्ठान द्वारा ऐसे ही ज्ञात और अज्ञात परिवर्तन होते हैं, जिनके कारण दु:खों और चिन्ताओं से ग्रस्त मनुष्य थोड़े ही समय में सुख- शान्ति का स्वर्गीय जीवन बिताने की स्थिति में पहुँच जाता है।

सवा लाख मन्त्रों के जप को अनुष्ठान कहते हैं। हर वस्तु के पकने की कुछ मर्यादा होती है। दाल, साग, ईंट, काँच आदि के पकने के लिए एक नियत श्रेणी का तापमान आवश्यक होता है। वृक्षों पर फल एक नियत अवधि में पकते हैं। अण्डे अपने पकने का समय पूरा कर लेते हैं, तब फूटते हैं। गर्भ में बालक जब अपना पूरा समय ले लेता है, तब जन्मता है। यदि उपर्युक्त क्रियाओं में नियत अवधि से पहले ही विक्षेप उत्पन्न हो जाय, तो उनकी सफलता की आशा नहीं रहती। अनुष्ठान की अवधि, मर्यादा, जप- मात्रा सवा लक्ष जप है। इतनी मात्रा में जब वह पक जाता है, तब स्वस्थ परिणाम उत्पन्न होता है। पकी हुई साधना ही मधुर फल देती है।

सवा लाख जप को चालीस दिन में पूरा करने का क्रम पूर्वकाल से चला आ रहा है। पर निर्बल अथवा कम समय तक साधना कर सकने वाले साधक उसे दो मास में भी समाप्त कर सकते हैं। प्रतिदिन जप की संख्या बराबर होनी चाहिए। किसी दिन ज्यादा, किसी दिन कम, ऐसा क्रम ठीक नहीं। यदि चालीस दिन में अनुष्ठान पूरा करना हो, तो १२५०००/४०=३१२५ मन्त्र नित्य जपने चाहिए। माला में १०८ दाने होते हैं, इतने मन्त्रों की ३१२५/१०८=२९, इस प्रकार उन्तीस मालाएँ नित्य जपनी चाहिए। यदि दो मास में जप करना हो तो १२५०००/६०=२०८० मन्त्र प्रतिदिन जपने चाहिए। इन मन्त्रों की मालाएँ २०८०/१०८=२० मालाएँ प्रतिदिन जपी जानी चाहिए। माला की गिनती याद रखने के लिए खडिय़ा मिट्टी को गंगाजल में सान कर छोटी- छोटी गोली बना लेनी चाहिए और एक माला जपने पर एक गोली एक स्थान से दूसरे स्थान पर रख लेनी चाहिए।



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