शांति और समृद्धि

भारतीय संस्कृति के द्रष्टा, उद्गाता, निर्माता और प्रवर्त्तक भारतीय “ऋषि” रहे हैं, जिन्होंने समाधि के दिव्यतम शिखरों पर स्थित होकर तत्व उपलब्ध किया, देखा, अनुभूति ली और भौतिक जगत की परिस्थिति, स्थान-काल और पात्र यानी मनुष्य की योग्यता, विकास एवं विभिन्न विषयक धारणा-शक्ति के अनुसार इसे स्वरूप प्रदान किया। इसीलिये भारतीय संस्कृति का मूल सदा से आध्यात्म या परमात्मा रहा है। चूँकि भारतीय संस्कृति का मूल भगवान हैं और जिन्होंने इसे देखा-उपलब्ध किया, वे ही दृष्टा-ऋषि हैं, जो परातत्त्व को प्राप्त कर स्वयं भगवान या उनके सदृश गुण-प्रभाव वाले बन गये हैं। उनकी अनुभूति जब विचार, भावना में अवतरित होकर वाणी का स्वरूप धारण करती है तो उसी वाणी को हम वेद-(ज्ञान) शब्द से बोध करते हैं।

भारतीयों की इसी आस्था, श्रद्धा, विरबास एवं निष्ठा के कारण ही भारतीय संस्कृति अनेकों बाह्य रूप परिवर्तनों के बीच बहती हुई भी अपनी अखण्डता- अजस्रता-निरन्तरता संरक्षित रखे रही साथ ही सदा समय-समय पर आवश्यक परिमार्जन होते रहने के कारण कोई कालिमा-कलंक और काई इसमें नहीं लगने पाई और न आज भी उस में कोई धूलिकण और धूमिलता का लवलेश वहाँ टिकने पाय है-भले ही यह कहा जा सकता है कि आज उसके लक्ष्य के अनुसार आचरण करने वालों की संख्या में भारी कभी आ गयी है, पर व्यक्ति रूप से ही नहीं-सामाजिक रूप से भी उसका स्वरूप अव्याहत और अक्षुण्ण रहा है। इसीलिये इस संस्कृति और धर्म को सनातन कहा जाता है।
आध्यात्मिक साधना का सारा-का-सारा माहौल तीन टुकड़ों में बँटा हुआ है। ये हैं- उपासना, साधना और आराधना। उपासना का मतलब समर्पण है।

उपासना:
उपासना माने भगवान् के नजदीक बैठना। नजदीक बैठने का भी एक असर होता है। चन्दन के समीप जो पेड़-पौधे होते हैं, वह भी सुगंधित हो जाते हैं। हमारी भी स्थिति वैसी ही हुई। चन्दन का एक बड़ा-सा पेड़, जो हिमालय में उगा हुआ है, उससे हमने सम्बन्ध जोड़ लिया और खुशबूदार हो गये। आपको भी अगर शक्तिशाली या महत्त्वपूर्ण व्यक्ति बनना है, बड़ा काम करना है, तो आपको भी बड़े आदमी के साथ, महान गुरु के साथ चिपकना होगा।

साधना :
साधना का अर्थ होता है-साध लेना। अपने आपको सँभाल लेना, तपा लेना, गरम कर लेना, परिष्कृत कर लेना, शक्तिवान बना लेना, यह सभी अर्थ साधना के हैं। हिन्दी में इसे ‘साधना’ कहते हैं और संस्कृत में ‘तपस्या’ कहते हैं। यह दोनों एक ही हैं। अतः साधना का मतलब है-अपने आपको तपाना। साधना में आपको अपने मन को समझाना होगा। अगर मन नहीं मानता है, तो आपको उसकी पिटाई करनी होगी।

आराधना:
आराधना कहते हैं-समाजसेवा को, जन कल्याण को। सेवाधर्म वह नकद धर्म है, जो हाथोंहाथ फल देता है। इसमें पहले बोना पड़ता है।







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