योग - जीवन का एक तरीका

मन को वश में करने की मुक्ति ही योग है । महर्षि पातंजलि ने कहा भी है-योगश्चित्त वृत्ति निरोधः । चित्तवृत्ति के निरोध से ही योग की उत्पत्ति की उत्पत्ति होती है और इसी को प्राप्ति ही योग का लक्ष है । गीता में भगवान कृष्ण ने योग की महत्ता बतलाते हुए कहा है कि यद्यपि मन चंचल है फिर भी योगाभ्यास तथा उसके द्वारा उत्पन्न वैराग्य द्वारा उसे वश में किया जा सकता है ।

योग साधना एक प्रबल पुरुषार्थ है जिसके सहारे प्रसुप्त आत्म-शक्तियों को जगाया जाता है । दैवी अनुग्रह आकर्षित करने का चुम्बकत्व योग साधना के साथ जुड़ा हुआ है। स्वाध्याय,चिन्तन, सत्संग आदि का अपना महत्त्व है, पर इतने से ही काम नहीं चल सकता ज्ञान क साथ कर्म भी चाहिए । ब्रह्म विद्या चिन्तन प्रधान है । उसके माध्यम से श्रद्धा को स्थिर किया जाता है । और अज्ञान का निवारण होता है इतने पर भी योग रूपी परम पुरुषार्थ की आवश्यकता बनी ही रहती है । उसी परिश्रम से आत्म सत्ता की उर्वरता निखरती है । उसी के सहारे आत्मतेज एवं ब्रह्म तेज से सुसम्पन्न बन सकने का अवसर मिलता है ।

महर्षि पातंजलि ने इस योग को आठ भागों में विभाजन किया है । योगदर्शन के पाद 2 का 29 वाँ सूत्र है-

यम नियमासन प्राणायाम प्रत्याहार
धारणा ध्यान समाधयोङष्टावंगानि॥

अर्थात-यम, नियम, आसन, प्राणायाम,प्रत्याहार धारणा और समाधि योग के यह आठ अंग हैं ।

कहा जा चुका है कि महर्षि पातंजलि के बताये हुए राजयोग के आठ अंग हैं ।
(1) यम,
(2) नियम,
(3) आसन,
(4) प्राणायाम,
(5) प्रत्याहार,
(6) धारणा,
(7)ध्यान,
(8) समाधि ।

इन आठ में प्रारम्भिक दो अंगों का महत्त्व सबसे अधिक है । इसीलिए उन्हें सबसे प्रथम स्थान दिया गया है । यम और नियम का पालन करने का अर्थ मनुष्यत्व का सवर्तोन्मुखी विकास है । योग का आरम्भ मनुष्यत्व की पूर्णता के साथ आरम्भ होता है। बिना इसके साधना का कुछ प्रयोजन नहीं ।
योग में प्रवेश करने वाले साधक के लिए यह आवश्यक है कि आत्म-कल्याण की साधना पर कदम उठाने के साथ-साथ यम-नियमों की जानकारी प्राप्त करें । उनको समझें, विचारें, मनन करें और उनको अमल में, आचरण में लाने का प्रयत्न करें ।

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