Women Initiation

Question: स्त्रियों को गायत्री का अधिकार है या नहीं, यह आशंका सभी उठाते देखे जाते हैं?


Ans:

 
धर्माचार्य भी तथा शोषक पुरुष समुदाय भी। वस्तुतः नर और नारी भगवान के दो नेत्र, दो हाथ, दो कान, दो पैर के समान मनुष्य जाति के दो वर्ग हैं। दोनों की स्थिति गाड़ी के दो पहियों की तरह मिल-जुलकर चलने और साथ-साथ सहयोग करने की है। दोनों कर्त्तव्य और अधिकार समान हैं। प्रजनन प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए एक का कार्य क्षेत्र परिवार, दूसरे का उपार्जन- उत्तरदायित्व इस रूप में बँट गए हैं। इस पर भी वह कोई विभाजन रेखा नहीं है। सामाजिक, आर्थिक, साहित्य, राजनीति आदि में किसी भी वर्ग पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। इसी प्रकार धर्म-अध्यात्म क्षेत्र में- साधना-उपासना के क्षेत्र में भी दोनों को स्वभावतः समान अधिकार प्राप्त हैं।

गायत्री उपासना का अर्थ है- ईश्वर को माता- पिता मानकर उसकी गोदी में चढ़ना, उसका लाड़- दुलार और प्रेम- वात्सल्य प्राप्त करना।कन्या और पुत्र दोनों ही माता की प्राण- प्रिय सन्तान हैं। ईश्वर को नर- नारी दोनों ही दुलारे हैं। कोई भी निष्पक्ष और न्यायशील माता- पिता अपने बालकों में इसलिए भेदभाव नहीं करते कि वे कन्या हैं या पुत्र हैं ।
प्राचीनकाल में अनेक महिलाएँ उच्चकोटि की साधिकायें हुई हैं और उन्होंने गायत्री की साधना की है। आध्यात्म कार्य में वे पुरूष से कभी भी पीछे नहीं रही हैं। नारी का तप ही उसकी कुक्षि से महान आत्माओं का प्रसव कराने में समर्थ होता है। तपस्विनी अदिति ने भावना वामन को जन्म दिया, रोहिणी और यशोदा के आँगन में उन्हें बाल- लीला करनी पड़ी। समस्त देवताओं की जननी अदिति माता है, भगवती कात्यायनी असुरों पर विजय प्राप्त करने में समर्थ हुई। माता शतरूपा के गर्भ से मानव प्राणी का जन्म हुआ। अधिक उदाहरण क्यों दिये जायें, संसार में जितने भी विभूतिवान व्यक्ति हुए हैं उनके जन्म और निवास का श्रेय माताओं को ही तो है। वह बात अलग है कि अशिक्षित, अपवित्र, हीनमति और मूढ़ स्त्रीया स्वयं ही इस दिशा में प्रवृत्त न हों लेकिन स्त्रीयाँ गायत्री साधना से वंचित रहें ऐसा कोई प्रतिबन्ध या शास्त्रीय निर्देश नहीं है।


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