वामदेवोऽत्रिर्वसिष्ठः शुक्रः कण्वः पराशरः ।।
विश्वामित्रो महातेजाः कपिलः शौनको महान्॥ १३॥
याज्ञवल्क्या भरद्वाजो जमदग्निस्तपोनिधिः ।।
गौतमो मुद्गलश्चैव वेदव्यासश्च लोमशः॥ १४॥
अगस्त्यः कौशिको वत्सः पुलस्त्यो मांडुकस्तथा ।।
दुर्वासास्तपसां श्रेष्ठो नारदः कश्यपस्तथा॥ १५॥
इत्येते ऋषयः प्रोक्ता वर्णानां क्रमशोमुने ।।
अर्थात्- गायत्री के २४ अक्षरों के द्रष्टा २४ ऋषि यह है-
(१)
वामदेव, (२)
अत्रि, (३)
वशिष्ठ, (४)
शुक्र, (५)
कण्व, (६)
पाराशर, (७)
विश्वामित्र, (८)
कपिल, (९)
शौनक, (१०)
याज्ञवल्क्य,
(११)
भारद्वाज, (१२)
जमदग्नि, (१३)
गौतम, (१४)
मुद्गल, (१५)
वेदव्यास, (१६)
लोमश, (१७)
अगस्त्य, (१८)
कौशिक, (१९)
वत्स, (२०)
पुलस्त्य,
(२१)
माण्डूक, (२२)
दुर्वासा, (२३)
नारद और (२४)
कश्यप ।।
-- गायत्री तंत्र प्रथम पटल इन २४ ऋषियों को सामान्य जन- जीवन में जिन सत्प्रवृत्तियों के रूप में जाना
जा सकता है, वे यह हैं-
(१) प्रज्ञा, (२) सृजन, (३) व्यवस्था, (४) नियंत्रण, (५) सद्ज्ञान, (६) उदारता, (७) आत्मीयता, (८) आस्तिकता, (९) श्रद्धा, (१०)
शुचिता, (११) संतोष, (१२) सहृदयता, (१३) सत्य, (१४) पराक्रम, (१५) सरसता, (१६)
स्वावलम्बन, (१७) साहस, (१८) ऐक्य, (१९) संयम, (२०) सहकारिता, (२१) श्रमशीलता,
(२२) सादगी, (२३) शील और (२४) समन्वय ।।
प्रत्यक्ष ऋषि यही २४ हैं ।।
गायत्री के समग्र विनियोग में सविता देवता, विश्वामित्र ऋषि एवं गायत्री
छन्द का उल्लेख किया गया है, परन्तु उसके वर्गीकरण में प्रत्येक अक्षर एक
स्वतंत्र शक्ति बन जाता है ।। हर अक्षर अपने आप में एक मंत्र है ।। ऐसी दशा
में २४ देवता, २४ ऋषि एवं २४ छन्दों का उल्लेख होना भी आवश्यक है ।।
तत्त्वदर्शियों ने वैसा किया भी है ।। गायत्री विज्ञान की गहराई में उतरने
पर इन विभेदों का स्पष्टीकरण होता है ।। नारंगी ऊपर से एक दीखती है, पर
छिलका उतारने पर उसके खण्ड घटक स्वतंत्र इकाइयों के रूप में भी दृष्टिगोचर
होते हैं ।। गायत्री को नारंगी की उपमा दी जाय तो उसके अन्तराल में चौबीस
अक्षरों के रूप में २४ खण्ड घटकों के दर्शन होते हैं ।। जो विनियोग एक समय
गायत्री मंत्र का होता है, वैसा ही प्रत्येक अक्षर का भी आवश्यक होता है ।।
चौबीस अक्षरों के लिए चौबीस विनियोग बनने पर उनके २४ देवता २४ ऋषि एवं २४
छन्द भी बन जाते हैं ।।
ऋषियों और देवताओं का परस्पर समन्वय है ।।
ऋषियों की साधना से विष्णु की तरह सुप्तावस्था में पड़ी रहने वाली देवसत्ता
को जाग्रत होने का अवसर मिलता है ।। देवताओं के अनुग्रह से ऋषियों को
उच्चस्तरीय वरदान मिलते हैं ।। वे सामर्थ्यवान बनते हैं और स्व पर कल्याण
की महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते हैं ।।
ऋषि सद्गुण हैं और
देवता उनके प्रतिफल ।। ऋषि को जड़ और देवता को वृक्ष कहा जा सकता है ।।
ऋषित्व और देवत्व के संयुक्त का परिणाम फल- सम्पदा के रूप में सामने आता है
।। ऋषि लाखों हुए हैं और देवता तो करोड़ों तक बताये जाते हैं ।। ऋषि
पृथ्वी पर और देवता स्वर्ग में रहने वाले माने जाते हैं ।। स्थूल दृष्टि से
दोनों के बीच ऐसा कोई तारतम्य नहीं है, जिससे उनकी संख्या समान ही रहे ।।
उस असमंजस का निराकरण गायत्री के २४ अक्षरों से सम्बद्ध ऋषि एवं देवताओं से
होता है ।। हर सद्गुण का विशिष्ट परिणाम होना समझ में आने योग्य बात है ।।
यों प्रत्येक सद्गुण परिस्थिति के अनुसार अनेकानेक सत्परिणाम प्रस्तुत कर
सकता है, फिर भी यह मान कर ही चलना होगा कि प्रत्येक सत्प्रवृत्ति की अपनी
विशिष्ट स्थिति होती है और उसी के अनुरूप अतिरिक्त प्रतिक्रिया भी होती है
।। ऋषि रूपी पुरुषार्थ से देवता रूपी वरदान संयुक्त रूप से जुड़े रहने की
बात हर दृष्टि से समझी जाने योग्य है ।।
मूर्धन्य ऋषियों की गणना २४ है ।।
-