गायत्री की २४ मुद्रायें






छन्द- विद्या के अन्तर्गत साधना- विधान का जो उल्लेख मिलता है, उसे मुद्रा कहा जाता है ।। मुद्राओं में यों कई ग्रंथों में मात्र अंगुलि संचालन की सामान्य क्रियाओं को ही पर्याप्त मान लिया गया है और गायत्री उपासकों को उन्हें ही कर लेने पर काम चल सकने का आश्वासन दिया गया है ।। पर यह आरंभ है ।। वास्तव में मुद्रा- विज्ञान अपने आप में एक समग्र शक्ति है ।। उसमें उँगलियों का ही नहीं शरीर के विभिन्न अवयवों का- श्वसन का तथा मन के विशिष्ट भाव- प्रवाहों का समावेश होता है ।। २४ मुद्रा साधनाओं को गायत्री के २४ अक्षरों के लिए किस प्रकार उपयोग किया जाना चाहिए, इसका निर्धारण अनुभवी मार्गदर्शक के परामर्श से ही हो सकता है ।। मुद्राओं का उल्लेख 'घेरण्डसंहिता' में इस प्रकार है-

महामुद्रा नभोमुद्रा उड्डियानं जलन्धरम् ।।
मूलबन्धो महाबन्धो महाबेधश्च खेचरी ॥ १॥
विपरितकारी योनिर्बज्रोली शक्तिचालिनी ।।
ताड़ागी माण्डवी मुद्रा शाम्भवी पंचधारणी॥ २॥
अश्विनी पाशिनी काकी मातंगी च भुजंगिनी ।।
             चतुर्विंशति मुद्राणि सिद्घदानीह योगिनाम् ॥ ३॥            
                                                                                                                  -घेरण्ड संहिता -- तृतीयोपदेश

अर्थात्- (१) महामुद्रा, (२) नभोमुद्रा, (३) उड्डीयान, (४) जालन्धर बन्ध, (५) मूलबन्ध, (६) महाबन्ध, (७) खेचरी, (८) विपरीत करणी, (९) योनिमुद्रा, (१०)  बज्रोली, (११) शक्ति चालनी, (१२) ताड़ागी, (१३) माण्डवी, (१४) शांभवी, (१५) अश्विनी, (१६) पाशिनी, (१७) काकी, (१८) मातंगी, (१९) भुजङ्गिनी, (२०) पार्थिवी, (२१) आम्भसी, (२२) वैश्वानरी, (२३) वायवी और  (२४) आकाशी ।।

यह २४ मुद्रा साधनाएँ योग साधकों को सिद्धियाँ प्रदान करने वाली हैं ।।

तंत्र प्रकरण में दोनों हाथों की उँगलियों को मिलाकर कुछ विशेष प्रकार की आकृतियाँ बनाई जाती हैं ।। इन्हें मुद्राएँ कहते हैं ।। मुद्राओं की संख्या २४ हैं ।। प्रत्येक अक्षर की एक मुद्रा है ।। अक्षरों के क्रम से मुद्रा निर्धारण निम्न प्रकार किया गया है ।। इन्हें किसी अभ्यासी विज्ञजन से अथवा उपासना ग्रंथों में उपलब्ध चित्रों के माध्यम से जाना जा सकता है-

                                                                     अतः परं प्रवक्ष्यामि वर्णमुद्राः क्रमेण तु ।।
                                                                     सुमुखं सम्पुटं चैव, विततं विस्तृतं तथा॥ १॥
                                                                     द्विमुखं त्रिमुखं चैव चतुःपंचमुखं तथा ।।
                                                                     षण्मुखाधोमुखं चैव व्यापकांजलिकं तथा ॥ २॥
                                                                     शकटं यमपाशं च ग्रंथितं सन्मुखोन्मुखम् ।।
                                                                     प्रलम्बं मुष्टिकं चैव मत्स्यकूर्मं वराहकम्॥ ३॥
                                                                     सिंहाक्रान्तं, महाक्रांन्तं, मुद्गरं, पल्लवं तथा ।।
                                                                     चतुर्विंशतिमुद्राक्षाज्जपादौ परिकीर्तिततः॥ ४॥


अर्थात्- गायत्री के अनुसार २४ मुद्राएँ इस प्रकार हैं-

(१) सुमुख, (२) सम्पुट, (३) वितत, (४) विस्तृत, (५) द्विमुख, (६) त्रिमुख, (७) चतुर्मुख, (८) पंचमुख, (९) षडमुख, (१०) अधोमुख, (११) व्यापकाञ्जलि, (१२) शकट, (१३) यमपाश, (१४) ग्रंथित, (१५) सन्मुखोन्मुख, (१६) प्रलम्ब, (१७) मुष्टिक, (१८) मत्स्य, (१९) कूर्म, (२०) बराहक, (२१) सिंहाक्रान्त, (२२) महाक्रान्त, (२३) मुद्गर और  (२४) पल्लव ।।

२४ अक्षरों के २४ देवताओं से सम्बन्धित २४ सिद्धियाँ

गायत्री विनियोग में सविता देवता का उल्लेख है ।। २४ अक्षरों के २४ देवताओं की नामावली पहले दी गई है ।। उन देवताओं को अष्टसिद्धि, नव निद्धि एवं सप्त विभूतियों के रूप में गिना गया है ।। ८+९+७ = २४ होता है ।। गायत्री के प्राचीन काल के साधकों को उन चमत्कारी विशिष्टिताओं की उपलब्धि होती होगी ।। आज के सामान्य साधक सामान्य व्यक्तित्व के रहते हुए जो सफलताएँ प्राप्त कर सकते हैं, उन्हें इस प्रकार समझा जा सकता है-

(१) प्रज्ञा, (२) वैभव, (३) सहयोग, (४) प्रतिभा, (५) ओजस्, (६) तेजस्, (७) वर्चस्, (८) कान्ति, (९) साहसिकता, (१०) दिव्य दृष्टि, (११) पूर्वाभास, (१२) विचार, संचार, (१३) वरदान, (१४) शाप, (१५) शान्ति, (१६) प्राण प्रयोग, (१७) देहान्तर सम्पर्क, (१८) प्राणाकर्षण, (१९) ऐश्वर्य, (२०) दूर श्रवण, (२१) दूरदर्शन, (२२) लोकान्तर सम्पर्क, (२३) देव सम्पर्क और  (२४) कीर्ति ।।

इन्हीं को गायत्री की २४ सिद्धियाँ कहा जाता है ।।

गायत्री उपासक पर देव अनुग्रह की निरन्तर वर्षा होती है ।। उसमें ऋषितत्त्व बढ़ता है ।। छन्द- पुरुषार्थ में- साधना प्रयोजन में श्रद्धा रहती है ।। मन लगता है ।। फलतः उसकी भाव भरी अन्तरात्मा का चुम्बकत्व उन देवताओं का अजस्र वरदान प्राप्त करता है, जिनका इस महामंत्र के साथ सघन सम्बन्ध है ।। कहा भी है-

चतुर्विंशति- त्वा सा यदा भवति शोभना ।।
गायत्रीं सवितुः शम्भो गायत्रीं मदनात्मिकाम्॥
गायत्रीं विष्णुगायत्री गायत्री त्रिपदात्मनः ।।
गायत्रीं दक्षिणर्मूते र्गायत्री शम्भुयोषितः॥


अर्थात्- गायत्री के २४ अक्षर, २४ तत्त्व हैं ।। गायत्री, सविता, शिव, विष्णु, दक्षिणामूर्ति, शम्भु शक्ति और काम बीज है ।।




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